"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 207वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है।
"श्रीगुरुरुवाच"
असन्निवृत्तौ तु सदात्मना स्फुटं प्रतीतिरेतस्य भवेत्प्रतीचः ।
ततो निरासः करणीय एवा-सदात्मनः
साध्वहमादिवस्तुनः ॥ २०७॥
अर्थ:-सत्य आत्मा के विचार से असत्की निवृत्ति होने पर इस प्रत्यक् (आन्तरिक) आत्मा की स्पष्ट प्रतीति होने लगती है। अतः अहंकार आदि असदात्माओं का भली प्रकार बाध करना ही चाहिये।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आत्मसाक्षात्कार के मार्ग की अत्यंत सूक्ष्म और गहन प्रक्रिया को अत्यंत सरल उपमा के माध्यम से समझाया गया है। शंकराचार्य बताते हैं कि जब तक असत्—अर्थात् जो वास्तव में नहीं है, जो केवल उपाधियों के कारण प्रतीत होता है—उसकी निवृत्ति नहीं होती, तब तक सत्य आत्मा की स्पष्ट अनुभूति सम्भव ही नहीं है। जैसे किसी वस्तु पर लगी धूल या मैल हट जाने पर ही उसकी वास्तविक चमक प्रकट होती है, उसी प्रकार अहंकार, देहाभिमान, मनोवृत्तियाँ, इन्द्रियगत आसक्तियाँ और मिथ्या पहचानें हट जाने पर ही भीतर स्थित चैतन्य-स्वरूप आत्मा का स्फुट प्रकाश उभर कर सामने आता है। यह आत्मा पहले से ही विद्यमान है, नित्य है, अपने आप में पूर्ण है; परन्तु उपाधियों का आच्छादन होने के कारण वह छिपी रहती है और जीव को स्वयं का वास्तविक स्वरूप दिखाई नहीं देता।
शंकराचार्य यहाँ विशेष रूप से ‘असन्निवृत्ति’ शब्द का प्रयोग करते हैं। इसका अर्थ केवल यह नहीं कि असत् का नाश कर दिया गया, बल्कि यह कि असत् का असत्व ठीक प्रकार जाना गया। जिस प्रकार रस्सी को सर्प समझने का भ्रम सर्प को मारने से नहीं मिटता, बल्कि सर्प का अभाव और रस्सी का यथार्थ ज्ञान होने से मिटता है, उसी प्रकार देह, मन, इन्द्रियाँ, अहंकार—ये सब जो आत्मा नहीं हैं—इनका यथार्थ जानना ही इनकी निवृत्ति है। वे वास्तव में नष्ट नहीं होते, केवल उनके प्रति मिथ्या ज्ञान का नाश होता है। यही कारण है कि कहा गया—“असन्निवृत्तौ तु सदात्मना स्फुटं प्रतीतिः”—जब असत् का अध्यास हटता है, तब आत्मा की स्पष्ट अनुभूति होती है।
सत्य आत्मा का ज्ञान होने पर यह प्रत्यक् आत्मा—अर्थात् भीतर साक्षी-स्वरूप चैतन्य—स्वयमेव प्रकाशित हो उठता है। वह बाहर से जानने की वस्तु नहीं है, न ही उसे मन या बुद्धि से ग्रहण किया जा सकता है। वह तो सबका आधार है, सब ज्ञान का प्रकाशक है, और जब अनात्म-वस्तुओं के साथ उसका मिथ्या-संबंध टूट जाता है, तब वह अपने स्वाभाविक तेज से प्रकाशित हो जाता है। इसलिए कहा गया कि आत्मा का ज्ञान किसी नई वस्तु की प्राप्ति नहीं है, बल्कि पहले से विद्यमान सत्य का आवरण-नाश है।
श्लोक के दूसरे भाग में शंकराचार्य निर्देश देते हैं—“ततो निरासः करणीय एव असदात्मनः”—इसलिए अहंकार आदि असदात्माओं का दृढ़तापूर्वक निरसन करना आवश्यक है। यह निरसन दमन या त्याग के रूप में नहीं, बल्कि विवेक के द्वारा होता है। साधक को बार-बार यह देखना चाहिए कि “मैं देह नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ, मैं अहंकार नहीं हूँ; ये सब परिवर्तनशील, जड़, अनात्म-वस्तुएँ हैं। मैं चैतन्य, साक्षी, शुद्ध, अविकार आत्मा हूँ।” इस प्रकार की निरन्तर आत्म-विचार प्रक्रिया से अनात्म की पकड़ स्वयमेव ढीली पड़ने लगती है और अंततः वह पूरी तरह गिर जाती है।
शंकराचार्य ने ‘अहंकारादिवस्तु’ शब्द का प्रयोग इसलिए किया है क्योंकि अहंकार ही मूल उपाधि है, जिसके साथ आत्मा का भ्रमित संबंध स्थापित हो जाने से ही जीवभाव जन्म लेता है। यह अहंकार देह को ‘मैं’ और मन-वृत्तियों को ‘मेरा’ मान लेता है और इसी से संसार-चक्र चलता रहता है। जब विवेक के द्वारा यह समझ में आता है कि अहंकार भी एक प्रकृतिक, जड़, क्षणभंगुर उपाधि है, तब वह स्वतः नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान प्रकट हो जाता है।
अतः इस श्लोक का सार यही है कि आत्मा पहले से ही स्वप्रकाश है, लेकिन अनात्म का आवरण उसके प्रकाश को ढक देता है। अनात्म की निवृत्ति, विवेकपूर्ण जांच-पड़ताल, निरंतर आत्म-विचार और उपाधियों का निरसन—इन साधनों के द्वारा आत्मा का ज्ञान प्रकाशमान हो जाता है। यही मुक्ति का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!