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रविवार, 28 दिसंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 211वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 211वां श्लोक"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

"आनन्दमय कोश"

नैवायमानन्दमयः परात्मा सोपाधिकत्वात्प्रकृतेर्विकारात् ।

कार्यत्वहेतोः सुकृतक्रियाया विकारसङ्घातसमाहितत्वात् ॥ २११॥

अर्थ:-यह परात्मा आनन्दमय नहीं है, क्योंकि आनन्द उपाधियुक्त एवं प्रकृति का विकार है, शुभ कर्मों का कार्य है और प्रकृति के विकारों के समूह (स्थूल-शरीर) के आश्रित है।

विवेकचूडामणि का यह श्लोक स्पष्ट रूप से बताता है कि आनन्दमय कोश भी परात्मा नहीं है। उपनिषदों में पाँच कोशों का वर्णन मिलता है—अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय। इनमें से आनन्दमय कोश सबसे सूक्ष्म और अत्यन्त सुखद अनुभव वाला माना जाता है, क्योंकि यह मुख्यतः सुषुप्तावस्था में प्रकट होता है और पुण्यकर्मों के फलस्वरूप सुख, तृप्ति और शान्ति का अनुभव कराता है। किंतु शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि यह आनन्दमय कोश भी उपाधियुक्त है, अर्थात् आत्मा पर आरोपित एक आवरण है, जो उसकी वास्तविक स्वभाव नहीं है।

श्लोक में कहा गया है—"नैवायमानन्दमयः परात्मा" अर्थात् आनन्दमय कोश परमार्थ-स्वरूप आत्मा नहीं है। आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, निराकार और निर्गुण है। जबकि आनन्दमय कोश इन गुणों से भिन्न है। सबसे पहले, यह “सोपाधिकत्वात्”—उपाधिसहित है। उपाधि का अर्थ है सीमित करने वाला, आवरण करने वाला, और परिवर्तनशीलता का कारण बनने वाला तत्व। आनन्दमय कोश सुख का अनुभव कराता है, परन्तु अनुभवित सुख स्वयं आत्मा का स्वभाव नहीं, बल्कि बुद्धि के अत्यन्त सूक्ष्म आवरण में प्रतिबिम्बित चैतन्य के कारण उत्पन्न होता है। इसलिए यह उपाधि है।

दूसरा कारण बताया—“प्रकृतेर्विकारात्” अर्थात् आनन्दमय कोश प्रकृति का विकार है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है—सत्त्व, रजस् और तमस्। आनन्दमय कोश प्रकृति के सत्त्वगुण का सूक्ष्मतम रूप है। जहां सत्त्व अधिक होता है, वहां शान्ति, प्रसन्नता और सुख की अनुभूति होती है। परन्तु यह अनुभूति प्रकृति का गुण है, आत्मा का नहीं। आत्मा किसी भी गुण से रहित है—वह निर्गुण, निर्विकार और नित्य है। अतः प्रकृति-धर्म होने के कारण आनन्दमय कोश आत्मा नहीं हो सकता।

तीसरा कारण—“कार्यत्वहेतोः सुकृतक्रियाया”। आनन्दमय कोश का सुख पुण्यकर्मों का फल है। शुभ कर्मों से मन में सत्त्व बढ़ता है, परिणामस्वरूप सुख और तृप्ति की अनुभूति होती है। लेकिन जो वस्तु कर्मों पर आधारित हो, जो कारण-कार्य-भाव में बँधी हो, वह नित्य कैसे हो सकती है? आत्मा का स्वरूप कर्मों पर नहीं चलता; न वह पुण्य से बढ़ता है, न पाप से घटता है। इसलिए कर्म-जनित सुख स्वरूप-आनन्द नहीं, केवल अनुभव मात्र है।

चौथा कारण—“विकारसङ्घातसमाहितत्वात्” अर्थात् आनन्दमय कोश शरीर-संघात में स्थित है। यह सूक्ष्म शरीर का अत्यन्त आन्तरिक आवरण है, जो जब तक अविद्या बनी रहती है तब तक विद्यमान है। यह भी एक विकार है, परिवर्तनशील है। सुषुप्ति में इसका अनुभव गहरा होता है, स्वप्न और जाग्रति में अल्प होता है। जो अवस्थाओं से प्रभावित हो, वह आत्मा कैसे हो सकता है? आत्मा तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, परन्तु इनमें आने वाले परिवर्तनों से अछूता है।

इसलिए शंकराचार्य निष्कर्ष देते हैं कि आनन्दमय कोश सुखद अनुभव कराने के बावजूद परात्मा नहीं है। यह आत्मा के अत्यन्त निकट है, परन्तु आत्मा नहीं। आत्मा उससे भी परे है—अनन्य, अनश्वर, सर्वव्यापी और स्व-प्रकाश। साधक को इस गलत पहचान को भी छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए, ताकि वह अपने वास्तविक स्वरूप—सत्यम् शिवम् सुन्दरम्—स्वयं के आत्मस्वभाव को जान सके।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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