"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 212वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
"आनन्दमय कोश"
पंचानामपि कोशानां निषेधे युक्तितः श्रुतेः ।
तन्निषेधावधिः साक्षी बोधरूपोऽवशिष्यते ॥ २१२ ॥
अर्थ:-श्रुति के अनुकूल युक्तियों से पाँचों कोशों का निषेध कर देने पर उनके निषेध की अवधिरूप (शुद्ध) बोधस्वरूप साक्षी आत्मा बच रहता है।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव की ओर ले जाने वाले ‘पञ्चकोश-विवेक’ की परंपरा का सार प्रस्तुत करता है। शास्त्र कहता है कि मनुष्य पंचकोशों—अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—के आवरण में घिरा हुआ है। ये पाँचों शरीर नहीं हैं, बल्कि आवरण हैं जो आत्मा को ढँकते प्रतीत होते हैं। जब साधक अपने को शरीर या मन या बुद्धि के रूप में मानता है, तब वह अपने स्वरूप से दूर चला जाता है। इस श्लोक में कहा गया है कि श्रुति—उपनिषद्—के अनुकूल युक्तियों द्वारा जब इन पाँचों कोशों का ‘निषेध’ किया जाता है, तो इन सबके पार जो शुद्ध प्रकाशरूप सत्ता बच जाती है, वही साक्षी आत्मा है। निषेध का अर्थ है यह समझना कि “मैं यह नहीं हूँ”—नेति नेति—जो उपनिषदों का महान विधान है। शरीर बदलता है, मन बदलता है, विचार बदलते हैं, बुद्धि के निर्णय बदलते हैं और आनंद का अनुभव भी बदलता है। जो बदलता है वह ‘मैं’ नहीं हो सकता; और जो सब बदलावों का साक्षी है, वही वास्तविक आत्मा है। इस प्रकार साधक क्रमशः इन आवरणों को मिथ्या समझकर छोड़ता जाता है।
पहले अन्नमय कोश का निषेध होता है, क्योंकि यह केवल अन्न से बना है—जन्म के समय माता के भोजन से बना, जीवन भर भोजन से पोषित और मृत्यु पर पृथ्वी में मिल जाने वाला। यह स्थूल शरीर नश्वर है; यह कभी भी आत्मा नहीं हो सकता। इसके बाद प्राणमय कोश का विचार आता है—जो श्वास-प्रश्वास, जीवन-ऊर्जा, चेष्टा आदि का समूह है। यह भी जाग्रत और स्वप्न में सक्रिय रहता है, पर गहरी नींद में लीन हो जाता है। जो अपनी उपस्थिति गहन निद्रा में भी न दे सके, वह आत्मा कैसे हो सकता है? इसलिए इसका भी निषेध किया जाता है। फिर मनोमय कोश आता है—संकल्प-विकल्प, विचार-तरंगें, भावनाएँ, इच्छाएँ—ये सब मन के विषय हैं। मन निरंतर बदलता रहता है, एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। जो अस्थिर है, जो परिवर्तनशील है, वह नित्य आत्मा नहीं हो सकता। अतः मन भी ‘नेति’ के द्वारा हट जाता है।
इसके बाद विज्ञानमय कोश—बुद्धि—का निषेध किया जाता है। बुद्धि निर्णय करती है, तर्क करती है, जानती है; पर स्वयं भी एक उभरती हुई शक्ति है, जो कभी तीव्र होती है, कभी मंद। बुद्धि भी निद्रा में लीन होती है और स्वयं किसी उच्चतर सत्ता से प्रकाशित होती है। इसलिए इसका भी आत्मत्व छुड़ाया जाता है। अन्त में आनन्दमय कोश का विचार है—जो सुख, प्रसन्नता, तृप्ति आदि के रूप में अनुभव होता है। यह गहरी नींद में तीव्रता से अनुभव होता है, पर यह भी ‘उपाधि’ से युक्त है, बदलता रहता है, पुण्य-पाप के आधार पर क्षणिक रूप से चमकता है। यह भी नित्य आत्मा नहीं हो सकता। इस प्रकार पाँचों कोशों का सार्थक विवेक और निषेध होने पर साधक अनुभव करता है कि — “इन सबका साक्षी कौन है?” वही साक्षी जो शरीर के परिवर्तन को देखता है, मन की तरंगों को देखता है, बुद्धि के निर्णयों को जानता है, आनंद के क्षणिक स्पर्श को भी जानता है। वह साक्षी किसी भी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता।
अतः जब पाँचों कोश हट जाते हैं, तब जो शेष रह जाता है वह ‘शुद्ध बोध’, ‘साक्षी’, ‘चैतन्य’, ‘आत्मा’ है। वह नित्य, निर्गुण, अविकार, सर्वसाक्षी सत्ता है। श्लोक कहता है कि यही निषेध का ‘अवधि’—अंतिम सीमा—है। यही वह प्रकाश है जिससे सब कुछ प्रकाशित होता है, पर जिसे कोई प्रकाशित नहीं कर सकता। वही आत्मस्वरूप है, वही ब्रह्म है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!