"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 210वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
"आनन्दमय कोश"
आनन्दमयकोशस्य सुषुप्तौ स्फूर्तिरुत्कटा। स्वप्नजागरयोरीषदिष्टसंदर्शनादिना ॥ २१०॥
अर्थ:-आनन्दमय कोश की उत्कट (तीव्र) प्रतीति तो सुषुप्ति में ही होती है, तथापि जागर्त्ति और स्वप्न में भी इष्टवस्तु के दर्शन आदि से उसका यत्किंचित् भान होता है।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक आनन्दमय कोश की प्रकृति और उसकी अनुभूति को अत्यंत सूक्ष्मता से समझाता है। शंकराचार्य बताते हैं कि पंचकोशों में सबसे सूक्ष्म और अन्तिम आवरण ‘आनन्दमय कोश’ है, जो सुख, प्रसन्नता और संतोष की अनुभूति से जुड़ा हुआ है। यह कोश आत्मा नहीं है, किंतु आत्मा के निकट होने के कारण इसका प्रकाश एक विशेष प्रकार का अनुभव होता है। श्लोक कहता है कि इस आनन्दमय कोश की “उत्कट”—अर्थात तीव्र, स्पष्ट और गहन—अनुभूति केवल सुषुप्ति अवस्था में ही होती है। कारण यह है कि गहरी नींद में अन्य सभी कोश—अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय—प्रायः लय को प्राप्त हो जाते हैं। मन और बुद्धि दोनों शांत हो जाते हैं, अहंभाव का भी लोप हो जाता है। उस समय जीव अपनी ही आन्तरिक शांति में विश्राम करता है, और वही विश्राम आनन्द के रूप में अनुभव होता है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति गहरी नींद से जागने पर स्वाभाविक रूप से कहता है—“मैं अच्छी नींद सोया” या “आज बड़ी शांति मिली”। यह शांति आत्मानन्द का प्रतिबिम्ब है, किंतु जीव उसे अपने आनन्दमय कोश के अनुभव के रूप में ग्रहण करता है।
हालाँकि यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आनन्दमय कोश की प्रबल अनुभूति सुषुप्ति में होती है, परन्तु स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं में भी इसका अल्प मात्रा में अनुभव संभव है। कैसे? जब कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु का दर्शन करता है, अपेक्षित समाचार प्राप्त करता है, मनोवांछित कार्य सिद्ध होता है, या किसी प्रकार की सफलता मिलती है, तब मन में एक आनंद की लहर उठती है। यह आनंद वस्तुतः वस्तु से उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि बाहरी वस्तु स्वयं में आनंदस्वरूप नहीं होती। यह अल्प आनंद इसलिए प्रकट होता है क्योंकि उस क्षण मन का विक्षेप क्षीण होता है और मन कुछ समय के लिए शांति को स्पर्श करता है। मन जब शांति को स्पर्श करता है तो आनन्दमय कोश का आभास होता है। यही कारण है कि जाग्रत अवस्था में यह आनंद क्षणिक और अपूर्ण होता है—वह वस्तु पर निर्भर है, मन के उद्वेग से बाधित है, और परिवर्तनशील है।
स्वप्न अवस्था में भी, जब स्वप्न में कोई प्रिय वस्तु या सुख का दृश्य दिखाई देता है, तब जीव वही अल्प तुष्टि अनुभव करता है। परंतु इन दोनों अवस्थाओं में यह अनुभव कभी स्थायी नहीं होता। उसका स्वरूप ‘इषत्’—अर्थात बहुत थोड़ा, सीमित और लगातार बदलता हुआ—है। इसीलिए शंकराचार्य ने कहा कि जाग्रत और स्वप्न में ‘इषत् सन्दर्शनादिना’—केवल थोड़ा-सा, अस्थायी आनंद मिलता है, वह भी इन्द्रिय और मन के माध्यम से।
सुषुप्ति का आनंद गहरी शांति पर आधारित होता है, जबकि जाग्रत और स्वप्न का आनंद बाहरी या मानसिक अनुभवों पर आधारित होता है। सुषुप्ति में यह कोश इसलिए उत्कट प्रतीत होता है क्योंकि वहां द्वैत नहीं रहता, मन शान्त रहता है और जीव अपने मूल स्वरूप के सान्निध्य में विश्राम करता है। लेकिन फिर भी यह कोश आत्मा नहीं है, क्योंकि सुषुप्ति का आनंद भी ज्ञानरहित है—वह अविद्या से आच्छादित है। जागने पर मन कहता है “मैं सुख से सोया”, लेकिन उस सुख का बोध उसी समय नहीं था, केवल पुनः स्मरण से ज्ञात होता है।
इस प्रकार यह श्लोक स्पष्ट करता है कि यद्यपि आनन्दमय कोश सबसे सूक्ष्म और आत्मा के निकट है, फिर भी यह केवल एक उपाधि है और आत्मा नहीं। इसका अनुभव भी मनोवृत्ति पर निर्भर है। आत्मानन्द तो इससे भी परे, निरुपाधि और नित्य है—उसे जानने पर ही वास्तविक मुक्ति का अनुभव होता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!