नित्य-अनित्य विवेक (भाग-1)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विश्व में हजारों साधक अपनी-अपनी योग्यता, स्वभाव व रुचि के अनुसार अध्यात्म पथ का अनुसरण कर रहें है। कठिन परिश्रम व साधना के उपरांत भी लक्ष्य को प्राप्त न करके वे उदास, निराश व उत्साहहीन हो जाते है। इसका मुख्य कारण है कि वे उन मूल बिन्दुओं को गम्भीरतापूर्वक न समझते हुए कठिन साधनाओं में सलंग्न रहते है।
आचार्य शंकर "विवेक चूडामणि ग्रन्य के श्लोक संख्या 19 में कहते हैं।
आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते।
इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम्॥१९॥
पहला साधन नित्यानित्य-वस्तु-विवेक गिना जाता है, दूसरा लौकिक एवं पारलौकिक सुख-भोग में वैराग्य होना है। भारतीय ऋषियों ने मानव कल्याण के लिए अनेकों साधना पद्धतियों का उपदेश किया है जिनको हम मुख्यतः तीन श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हैं-
(1) कर्म योग
(2) उपासना (भक्ति योग)
(3) वेदान्त् (ज्ञान योग)
इस विषय को और अधिक स्पष्ट व सरल करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि जैसे देवताओं और दानवों ने समुन्द्र का मंथन करके अमृत को प्राप्त किया था वैस ही आत्म तत्व के जिज्ञासु को इस आत्मा और अनात्म (नित्य और अनित्य) के मिश्रण से दृष्टिगोचर हो रहे और अनुभव में आ रहे जगत रूपी संसार समुन्द्र का विवेक रूपी मथानी से मन्थन करके परम तत्व (अमृत) को प्राप्त करना होगा जिसका वेदान्त दर्शन हमें उपदेश देता है।
अतः विवेक का सीधा सीधा अर्थ है नित्य (शाश्वत, अक्षय और अपरिवर्तनशील स्थाई तत्व) और अनित्य (अस्थाई, बदलने वाला, और केवल दृष्टिगोचर होने वाला परिवर्तनशील तत्व) का बुद्धिपूर्वक भेद करना (अलग-अलग करना) ही आत्म ज्ञान का प्रथम व अनिवार्य चरण है।
इस विषय में हमारा तर्क होगा कि हम नित्य और अनित्य का भेद करना जानते है लेकिन वे हमारी भेद बुद्धि लौकिक कार्यों के लिए है न कि आत्म कल्याण के लिए। उस विवेक बुद्धि को प्राप्त करने के लिए हमे सन्तों को शरण में जाना होगा और सत्संग करना होगा।
गोस्वामी श्री तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहते हैं:-
बिनु सत्संग विवेक न होई,
रामकृपा बिनु सुलभ न सोई !!
भगवान श्रीराम माता शबरी को रामचरितमानस के अरण्य कांड में नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए कहते हैं..
"प्रथम भक्ति संन्तन कर संगा"
गुरुजन (सन्त) हमें यह समझाते है कि संसार में हमें जो कुछ भी दिखाई व सुनाई दे रहा है वह सब क्षणिक, अस्थाई और परिवर्तनशील है जबकि इन सब प्रतीतीयों अनुभवों और घटनाओं का आधार, नित्य, अपरिवर्तशील, शाश्वत, अक्षय सत्य ब्रह्म है।
जब हम इस दृष्टिकोण से संसार का विश्लेषण करते है तो परम सत्य हमें कही दूर चौथे या सातवें आसमान पर नहीं अपने-आपे (Self) स्वयं में ही उपलब्ध हो जाता है। जिसे हम बाहर ढूंढते थे। । नवम गुरु श्री तेग बहादुर जी कहते हैं कि
काहे रे बन खोजन जाई, सर्व निवासी सदा अलेपा, तोहि संग समाई !!
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
(शेष दूसरे भाग में)
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