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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

नित्य-अनित्य विवेक (भाग-2)


नित्य-अनित्य विवेक (भाग-2)

ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ

यह विवेक का लाभ है अतः निष्कर्ष रूप में विवेक ही आत्म ज्ञान को प्राप्त करने की प्रथम सीढ़ी है या कुंजी है। इस विवेक को परिपक्व, दृढ़ करने के लिए  हमें निम्न साधनों का आश्रय लेना होगा और वे है (1)श्रवण (2) मनन और निदिध्यासन

(1) श्रवण:-
(1) शास्त्रों का स्वाध्याय:- हमें किमी अनुभवी व्यक्ति अथवा सन्त महापुरुषों की पावन सन्निधि में वेदान्त ग्रन्थों, उपनिषद, भगवद्‌गीता, ब्रह्मसूत्र का स्वाध्याय मनन करना होगा या श्रवण करना होगा।
लेकिन इन महान ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से पूर्व हमें छोटे-छोटे प्रकरण ग्रन्थों जैसे विवेक-चूडामणि, आत्मबोध, अपरोक्षानुभूति, विचार चन्द्रोदय, विचार सागर, रामचरितमानस जैसे ग्रन्थों का अध्ययन करना अति आवश्यक अवश्य है। क्योंकि जब तक हम मूल सिद्धान्तों  को नहीं समझ लेते तब-तक हम इस विषय को आत्मसात करने में असफल रहते हैं अतः नित्य प्रति सत्संग, स्वाध्याय व सन्त दर्शन अनिवार्य है।

(2) मनन
ध्यान और आत्म निरिक्षण ..
श्रवण किया हुआ ज्ञान मेरी बुद्धि में बैठ जाए। मेरे चिन्तन में उसकी धारा निर्बाध रूप से चलती रहे तभी श्रवण किया हुआ ज्ञान फलदायी होता है। हम नित्य और अनित्य का वैसे ही चिन्तन (मनन) अर्थात मानसिक निरीक्षण करें जैसे
कामी नारी प्यार जिमि, लोभी प्रिय जिमि दाम, तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागी मोहि राम !!

आत्म तत्व (चेतन तत्व) की अनुभूति के लिए ध्यान का बहुत बड़ा महत्व है। बिना ध्यान के आत्म जैसा सूक्ष्म विषय स्पष्ट नहीं हो पाता है। श्रवण करने से बुद्धि तार्किक तो हो जाती है परन्तु अनुभवी नहीं बन पाती। आत्मा/चेतनता की अनुभूति हमें ध्यान-समाधि से ही होती है। इसलिए ऐसे लोगों को फटकारते हुए सन्त कबीर कहते हैं।
तू कहता कागद की लेखी
मैं कहता आँखन की देखी !!.
अतः श्रवण को मनन बनाने के लिए ध्यान की अत्यन्त आवश्यकता है यानि दूध का दही बनाना।

(3) निधिध्यासन
जीवन में वैराग्य (अनासक्ति) का अभ्यास :-
वैराग्य का सीधा-सीधा अर्थ है कि संसार की वस्तुओं के प्रति राग (आसक्ति) का त्याग व बहिष्कार (घृणा) अथवा पाप के रूप में उनका प्रचार करना निधिध्यासन है दही से मक्खन निकलना।

जब हमारा विवेकपूर्ण श्रवण किया हुआ ज्ञान, मनन करने से दृढ़ हो जाता है तो वह ज्ञान मेरे जीवन या व्यवहार में नित्य वस्तु (आत्म) के प्रति अनुराग और अनित्य वस्तु (आनात्मा) के प्रति वैराग्य के रूप में दृष्टिगोचर होता है। क्योंकि फिर नित्य तत्व के प्रति उसकी स्वाभाविक रुचि और अनित्य पदार्थ के प्रति सच्चा वैराग्य हो जाता है। 
भगवान श्रीकृष्ण गीता में निदिध्यासन की वर्णन करते हुए कहते हैं. -
यं लब्ध्वा चापरं लाभं, मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्-स्थितो न दुःखेन, गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२॥

परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त हो कर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता ॥ २२ ॥

इस तरह जब हम  क्रमबद्ध ढंग से नित्य- अनित्य के विवेक का आश्रय लेकर ज्ञान मार्ग की यात्रा (अनुसरण) करते है तो परमात्मा व गुरु कृपा से हमारा श्रवण किया हुआ ज्ञान, मनन में और हमारा मनन निदिध्यासन में परिवर्तित होकर वह विवेक से उत्पन्न हुआ ज्ञान "निष्ठा" रूपी अमृत फल के रूप में प्राप्त होता है। जिस से अनादि काल से चली आ रही अज्ञान की परम्परा का अन्त हो जाता है और साधक अपने शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर ईश्वर, गुरु और शास्त्र के प्रति कृतज्ञता  करता हुआ भाव विभोर होकर मुक्तकंठं से गाता है।-
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम।।
यही नित्य-अनित्य विवेक की अद्वितीयता (महिमा) है !I

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!

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