"साधना सम्बन्धी नौ प्रश्न" (भाग-2)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
(1) भगवत धर्म का स्वरूप
राजा निमि योगीश्वर से प्रश्न करते है कि परम कल्याण का स्वरूप क्या है? और उसका साधन क्या है? उन नौ योगीश्वरों में से प्रथम योगीश्वर श्री कवि जी ने कहा :-
ये वै भगवता प्रोक्ता मया ह्यात्मलब्ध्ये।
अञ्ज: पुंसामविदुषां विद्धि भगवतां हि तं ॥ 34 ॥
(श्रीमद्भागवत- 11/2/34)
भगवान ने भोले-भाले अज्ञानी पुरषों को भी सुगमता से साक्षात अपनी प्राप्ति के लिए जो उपाय स्वयं श्रीमुख से बतलाये हैं, उन्हें ही भागवत धर्म समझो और वह सीधा, सरल व सहज उपाय है:-
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ 36॥
(श्रीमद्भागवत- 11/2/36)
अर्थात, भागवत धर्म का पालन करने वाले के लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकार का कर्म ही करे। वह शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से, अहंकार से, अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की आदतों से स्वभाववश जो-जो भी करे, वह सब परमपुरुष भगवान नारायण के लिए ही है। इस भाव से उसे भगवान को ही समर्पण कर दे। (यही सरल से सरल सीधा सा भागवत धर्म है)
(2) भगवद-भक्त के लक्षण और उसका स्वभाव
राजा निमि ने पूछा कि अब आप कृपा करके भगवत भक्त के लक्षण का वर्णन कीजिए ? और उसका स्वभाव कैसा होता है?
अब नौं योगीश्वरों में से दूसरे गोपीश्वर श्री हरि जी ने कहा कि जो सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ता को ही देखता है और समस्त प्राणियों को भगवत्स्वरुप अनुभव करता है उसे भगवान का परम प्रेमी उत्तम भगवत समझना चाहिए।
जो भगवान से प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता और अज्ञानियों पर कृपा तथा भगवान से द्वेष करने वालों की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भागवत है।
और जो भगवान की पूजा - अर्चना तो श्रद्धाभाव से करता है, परन्तु भगवान के भक्तों या दूसरे लोगों की विशेष सेवा नहीं करता है, वह साधारण श्रेणी का भगवत भक्त है।
(3) माया से पार जाने का उपाय व कर्मयोग.
राजा निमि ने पूछा कि है भगवन् । सर्व शक्तिमान परमात्मा की माया सबको मोहित कर देती है उसे कोई पहचान नहीं पाता। अतः अब में उस माया का स्वरूप जानना चाहता हूँ।
अब तीसरे योगीश्वर श्री अन्तरिक्ष जी ने कहा कि भगवान की माया स्वरूपतः अनिर्वचनीय है, इसलिए उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरुपण होता है। आदि पुरुष परमात्मा जिस शक्ति से सम्पूर्ण भूतों के कारण बनते हैं और देव, मनुष्य आदि शरीरों की सृष्टि करते है उसी को माया कहते हैं।
वह देहाभिमानी जीव पंचभूतों के द्वारा निर्मित शरीर को ही आत्मा (अपना स्वरूप) मानकर आसक्त हो जाता है। (यह भगवान की माया है) और बार-बार जन्म के बाद मृत्यु को प्राप्त होता रहता है।
जब पंचभूतों के प्रलय का समय आता है तो स्थूल कार्य अपने सूक्ष्म कारण में और सूक्ष्म सृष्टि अपने मूल अनादि कारण ब्रह्म में लीन हो जाती है। यह भगवान की माया है फिर इसके उल्टे क्रम से सृद्धि की उत्पति होती है। यह सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली त्रिगुणमयी माया है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
शेष तीसरे भाग में
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