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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

"साधना सम्बन्धी नौ प्रश्न" (भाग-3)


"साधना सम्बन्धी नौ प्रश्न" (भाग-3)

ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ

(4) माया से पार जाने का उपाय

राजा निमि ने पूछा कि भगवान की माया के पार जाना उन लोगों के लिए अत्यन्त कठिन है जो अपने मन को वश में नहीं कर पाएं है। अब कृपा करके यह बताइये कि जो लोग शरीर आदि में ही आत्मबुद्धि रखते हैं, तथा जिनकी बुद्धि मोटी है वे इन माया को कैसे पार कर सकते हैं?

तब चौथे योगीश्वर श्री प्रबुद्ध जी ने कहा कि जो मनुष्य माया से पार जाना चाहता है उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि पुण्य करने के बाद प्राप्त होने वाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान हैं।

इसलिए जो परम कल्याण का जिज्ञासु हो उसे गुरु को ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव मानें! उनकी निष्कपट भाव से सेवा करे फिर भगवान को प्राप्त कराने वाले भक्ति भाव के साधनों की क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे । भगवान की लीलाएं अद्‌भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना सीखे।

इति भगवतां धर्मान् शिक्षन् भक्त्या तदुत्थया।
नारायणपरो मायामञ्जस्तैरति दुस्तरामम् ॥ 33 ॥
( श्रीमद्भागवत-11/3/33)

जो इस प्रकार भागवत धर्मो की शिक्षा ग्रहण करता है उसे भगवान नारायण की प्रेमा-भक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह उस माया को अनायास ही पार कर जाता है जिस के पंजे से निकलना अत्यन्त कठिन है।

(5) परमात्मा (नारायण) का स्वरूप 

राजा निमि से पूछा कि महर्षियों आप लोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिए आप मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा का "नारायण" नाम से वर्णन किया जाता है, उसका वास्तविक स्वरूप क्या है?

अब पाँचवें योगीश्वर श्री पिप्पलायन जी ने कहा कि जो इस संसार की उत्पति स्थिति और प्रलय का निमित कारण और उपादान कारण दोनों ही हैं परन्तु स्वयं कारण रहित है जो स्वप्न जाग्रत और सुषुप्ति अवस्था में उनके साक्षी रूप में सर्वदा विद्यमान रहता है। जिसकी सत्ता से शरीर, इंद्रियां, प्राण और अन्तःकरण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं उसी परम् सत्य वस्तु को आप "नारायण" समझिये।

यह ब्रह्म स्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है, सबका साक्षी अविनाशी है और ज्ञानस्वरूप है। उसका सम्यक ज्ञान ही उसकी प्राप्ति है।

(6) कर्मयोग

राजा निमि ने पूछा कि आप हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिए जिसके द्वारा शुद्ध हुआ मनुष्य अति शीघ्र परम ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

अब छठे योगीश्वर श्री आविर्होत्र जी ने कहा कि जो पुरुष चाहता है कि मेरे हृदय ग्रन्थि, मैं और मेरे की कल्पित गांठ खुल जाए। उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करें।

पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे फिर उनके द्वारा पूजा- अर्चना की अनुष्ठान की विधि सीखें। इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में विराजमान आत्मरूप श्रीहरि की पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

शेष चौथे भाग में

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