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सोमवार, 23 दिसंबर 2024

विनय - पत्रिका (भाग-2)


"विनय - पत्रिका (भाग-2)"

ॐ!! वंदे गुरु परम्परा !! ॐ

विनय पत्रिका के सभी पद कल्याण के सूत्र है जिनका आश्रय लेकर साधक गुरु कृपा से अपनी साधना को पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह पूर्णरूपेण सफल सिद्ध व सार्थक कर सकता है।

"विनय पत्रिका" (203)

(1) श्रीहरि-गुरु -पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख -निधान भगवान ॥ १ ॥

हे मन ! तू अभिमान छोडकर भगवान-रूपी श्रीगुरु के चरण कमलों का भजन कर! जिनकी सेवा करने से आनन्दघन भगवान श्रीहरि की प्राप्ति (शुद्ध स्वरूप का बोध) हो जाती है।

(2) परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।
जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥ २ ॥

जैसे प्रतिपदा (पक्ष का सबसे पहला दिन है) उसी प्रकार (सर्व साधानों में) प्रेम (श्रद्धा-भक्ति) प्रथम है!

(3) दुइज द्वेत -मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर।
बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर ॥ ३ ॥

धीर भाव से (अचंचल चित से) द्वितिया के सामान दूसरा साधन द्वैत बुद्धि (ईश्वर और जीव में भेद बुद्धि) छोड़कर समदृष्टि से समस्त पृथ्वी मण्डल में निश्चित होकर विचरण करना चाहिये।

(4) तीज त्रिगुन -पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद।
गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४ ॥

तृतीया के समान तीसरा  उपाय है परम् पुरुष श्रीमुकुन्द भगवान तीनों गुणों (सत - रज और तम) से परे है। अतः त्रिगुणमयी प्रकृति का त्याग कर देना चाहिए अर्थात उसे मिथ्या जानो।

(5) चौथि चारि परिहरहु बुद्धि -मन-चित-अहंकार।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५ ॥

चौथा साधन मन बुद्धि, चित्त और अहंकार (अन्तःकरण) का त्याग कर देना चाहिए अर्थात् दृष्टा बन जाए !


(6) पाँचइ पाँच परस,रस,सब्द,गंध अरु रूप।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६ ॥

पांचवा साधन पाँचों इन्द्रियों अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के अधीन होकर न चले क्योंकि इनके वश में होने से जीव संसार रूपी अन्धे कुएं में गिरता है।


(7) छठ षटबरग करिय जय जनकसुता -पति लागि।
रघुपति -कृपा -बारि बिनु नहीं बुताइ लोभागि ॥ ७ ॥

षष्ठी के समान छटा उपाय है कि श्री जानकीनाथ श्रीराम जी की प्राप्ति के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य रुपी छः शत्रुओं को जीत लेना चाहिए ! भगवद् कृपा रूपी जल के बिना लोभ रूपी अग्नि नही बुझती है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

शेष भाग तीन में

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