"विनय - पत्रिका (भाग-4)"
ॐ!! वंदे गुरु परम्परा !! ॐ
(15) चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५ ॥
चतुर्दशी के समान गो-पाल (इन्द्रियों के नियन्ता) भगवान् चराचर रूप से चौदहों भुवनों में रम रहे है। परन्तु जब तक भेद बुद्धि दूर नहीं होती है, तब तक श्री रघुनाथ जी संसार रुपी जाल को नहीं काटते!
(16) पूनों प्रेम -भगति-रस हरि-रस जानहिं दास।
सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६ ॥
पूर्णमासी के समान (भगवन् प्राप्ति का) पंद्रहवां साधन है कि प्रेम भक्ति के रस में सराबोर होकर भक्त को भगवान का परम रहस्यमय तत्व जानना चाहिए ! इसी से वह समदर्शी ज्ञानस्वरूप और विषयों से उदासीन हो सकता है।
(17) त्रिबिध सूल होलिय जरे, खेलिय अब फागु।
जो जिय चहसि परमसुख , तौ यहि मारग लागु ॥ १७ ॥
हमें आनन्दमयी होली की (फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन) दैहिक, दैविक और भौतिक - इन तीनों तापों की होली जलाकर भगवान के साथ (प्रेम को) खूब फाग खेलनी चाहिए। यही परमानंद की अवस्था है। हे मन, यदि तू इस परमानंद की इच्छा करता है तो इसी मार्ग पर चल अर्थात् उपर वर्णित साधनों में लग जाओ।
(18) श्रुति -पुरान -बुध -संमत चाँचरि चरित मुरारि।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८ ॥
वेद, पुराण, और विद्वानों का यही एक मत है कि भगवान की लीलाओं का गान ही होली के गीत है। (खूब हरिकीर्तन करना चाहिये)। इन सब साधनों पर विचार करके संसार - सागर से तर जाना चाहिये।
(19) संसय -समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९ ॥
सारे सन्देहों के नाश करने वाले दुःखों को दूर करने वाले और सुखों के निधान केवल एक श्रीहरि ही हैं। चाहे जितने ही उपाय कर लो, संतों की कृपा के बिना वे नहीं मिल सकते अर्थात संत कृपा ही सर्व साधनों में प्रधान है।
(20) भव सागर कहँनाव सुद्ध संतनके चरन।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २० ॥
संसार रुपी समुद्र से तरने के लिए संतों के चरण पवित्र नौका है। हे तुलसीदास ! (हम नौका पर चढ़ कर अर्थात संतों के चरणों की सेवा करने से दुखों का नाश करने वाले श्री रामचन्द्र जी (परमात्म तत्व) बिना ही परिश्रम के मिल जाएँगे !!
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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