व्यवहार में निर्लेप (असंगता)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
पूज्य श्री गुरुदेव कहते हैं। कुछ विद्वान लोग मानते हैं कि व्यवहार में प्रवृत होने से वृत्ति बदल जाती है इसलिए ज्ञानी को सदैव संसार से उपराम ही रहना चाहिए। लेकिन ब्रह्मज्ञान के विषय में ऐसा नहीं है।
यदि लोहे की तलवार पारस मणि के सम्पर्क में आ जाए तो वह सोने की बन जाती है लेकिन हम पुनः उसे लोहे की बनाना चाहें तो क्या वह फिर से लोहे की बन सकेगी? नहीं!
ठीक इसी तरह गुरु कृपा से प्राप्त ब्रह्मज्ञान को प्राप्त हुआ महापुरुष लौकिक व्यवहार करता हुआ भी उसी तरह निर्लेप व असंग रहता है जैसे जल के भीतर रहता हुआ 'कमल का पुष्प' जल से अलिप्त रहता है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में इसी तथ्य की प्रमाणिकता से पुष्टि करते हुए कहते हैं। -एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ, नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्या-मन्त-कालेऽपि, ब्रह्म-निर्वाण-मृच्छति ॥ (गीता 72/2)
हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकालमें भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः!!