"वेदान्त का बड़ा व्यावहारिक पक्ष"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि वेदान्त का बड़ा व्यावहारिक पक्ष है। लेकिन, जब से आदमी ने परमात्मा को अपने जीवन से अलग माना है, तब से वह अकर्मण्य भी हो गया है। वह पराधीन भी हो गया है और दूसरे के भरोसे बैठा रहने लगा है। गोस्वामी जी ने कहा है-
'कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा ।'
आप कभी सोचें कि जब भगवान् ने ही सबको पैदा किया है, तो क्या तुम्हारे भीतर वह नहीं है? क्या तुम्हारी इन्द्रियों को उसने नहीं बनाया? क्या तुम्हारे मन को उसने नहीं बनाया ? क्या तुम्हारे हाथ भगवान् ने नहीं बनाए ? जब भगवान् ने तुम्हें दो हाथ दे कर भेजा है, तो अपने भरोसे रहने के लिए भेजा है कि भगवान् के भरोसे रहने के लिए? दो हाथ पा कर भी यदि कोई भगवान् का भरोसा करे, तो भगवान् की गलती है कि तुम्हारी ? जरा सोच-समझ कर मुझे बताओ । यदि, भगवान् को अपने हाथ से खेती करके तुम्हें खिलाना था, तो तुम्हारे हाथ काहे को लगाए ? क्या भगवान् कम अकल का था ? तुम्हारे हाथ लगाने का मतलब ही यह है कि भगवान् ने अपनी जिम्मेदारी तुम्हारे हाथों को दे दी है। अब तुम्हारा यह कर्त्तव्य है कि अपना काम स्वयं करो।
पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि वेदान्त सभी के लिए है लेकिन
एक विवाद का विषय यह भी बना हुआ है कि संन्यासी को तो वेदान्त सुनना चाहिए, गृहस्थ को नहीं। वेदान्त गृहस्थ के लिए नहीं है; संन्यासी के लिए है। कुछ लोग कहेंगे कि वेदान्त पण्डितों के लिए है; हरिजनों के लिए नहीं है अर्थात् संन्यासी और पण्डितों ने अपने तरने के लिए ठेका ले रखा है। बाकी लोग तो बिचारे कर्म करके मरने के लिए जन्मे हैं।
रामायण में मानव योनि को-
'साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।'
पाइ न जेहिं परलोक संवारा ।।'
मनुष्य की देह को ही साधन धाम कहा गया है। उसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही शमिल है; जैसे गो जाति कहने से उसमें गाय और बैल दोनों ही आते हैं। 'गो' शब्द गाय और बैल दोनों के लिए आता है; पर, अधिकतर यह शब्द अब मादा गाय के लिए ही प्रयोग होने लग गया है। ऐसे ही 'मनुष्य' शब्द, स्त्री-पुरुष दोनों का ही वाचक है। मानव देहधारी चाहे स्त्री हो, चाहे पुरुष हो; ये दोनों ही मनुष्य कहलाते हैं। जैसे तुमको कहेंगे कि तुमने मुनष्य योनि में जन्म लिया है। तुम मनुष्य योनि में जन्मे हो कि कुत्ता योनि में ? आप मुनष्य योनि में ही जन्मे हैं। यहाँ 'मनुष्य' शब्द में स्त्री भी आ जाती है। पर, पता नहीं लोगों ने इस तरह क्यों सोचा है; जबकि शास्त्रों ने मनुष्य को मोक्ष का हकदार माना है। भगवान् कृष्ण ने भी माना है। गोस्वामीजी ने भी 'साधन-धाम' कहकर मनुष्य को मोक्ष का हकदार माना है। उसमें शूद्र भी शमिल हैं या नहीं, पता नहीं ?
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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