"साक्षी को जानने की कोशिश की, तो भटक गए"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
'येनेद सर्वं विजानाति'
यह उपनिषद् का वचन है। जिसके द्वारा यह सब जाना जाता है, उसको किसके द्वारा जानोगे ? कहने का तात्पर्य यह है कि उसको किसी के द्वारा जानने की चेष्टा नहीं करनी है। हम आपको उसको जानने की विधि बता रहे हैं। एक बात मैं कभी-कभी मंच से जरा जोश में कहता हूँ कि दुनियां में जितने लोग कथा करने वाले हैं, उनमें से इने-गिने लोगों को छोड़कर, शेष कथाकार हर श्रोता को, हर सत्संगी को, अज्ञान में डाल देते हैं। वे जनता को अन्धकार में डाल देते हैं। वे कहते हैं कि 'वह' जाना ही नहीं जा सकता। लेकिन, उपनिषद् का यह भाव नहीं है कि तुम बेकार सुन रहे हो, बेकार मेहनत कर रहे हो, तुम उसे कभी भी जान ही नहीं सकोगे ।
उपनिषद् यह कहता है कि जिसके द्वारा सब जाना जाता है, उसको तुम किसके द्वारा जाना चाहते हो ? उसे किसी के द्वारा जानने की तुम इच्छा न करो। फिर क्या करो ?
'येनेदं सर्वं विजानाति तत् केन कं विजानीयात् ।'
जिसके द्वारा सब जाना जाता है, वही ब्रह्म है। उसको कैसे जानना ? क्या जरूरत है जानने की ? वह तो है ही। उसी को तुम ब्रह्म स्वीकार कर लो, जानने की चेष्टा मत करो। उसे अपनी बुद्धि का विषय मत बनाओ। क्योंकि, यदि उसे बुद्धि का विषय बनाओगे, तो जैसी बुद्धि होगी, वैसी ही अनुभूति होगी। तुम कहोगे कि अब हम जान गए कि आत्मा प्रकाशरूप है, आत्मा स्थिर है और आत्मा निर्विकार है। यह निर्विकारता बुद्धि के ही कारण मालूम पड़ती है। साक्षी की निर्विकारता को क्या जानोगे ?
एक बात प्रसंगवश फिर बतला दूँ। उपनिषद् यह कहता है-
'यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते' ।।
उपनिषद् यह नहीं कहता कि तुम उसे मत जानो। उपनिषद् यह कहता है कि उसे जानो तो; लेकिन कैसे जानो ? इसका अर्थ लोग करते हैं कि जो मन से नहीं जाना जाता; जिससे मन जाना जाता है; उसे तुम कैसे जान सकोगे ? इस तरह की कथा में यह अभिप्राय लगता है कि तुम उसे नहीं जान सकोगे। पर उपनिषद् का यह अभिप्राय नहीं है।
उपनिषद् का अभिप्राय यह है कि 'यन्मनसा न मनुते' जिसका मन से मनन नहीं किया जा सकता अर्थात् जब मन से मनन नहीं किया जा सकता, तो मन से मनन मत करना। फिर क्या करना ? 'यन्मनसा न मनुते'। किन्तु 'येनाहर्मनोमतम् ।' जिससे मन ही महसूस होता है, मन से वह महसूस नहीं होता, बल्कि, मन ही जिससे महसूस होता है। 'तदेव बह्यत्वं विद्धि' उसको तुम ब्रह्म जानो । जो मन को जानता है, उसे बह्म जानो; मन से बह्य को न जानो।
वह ध्यान में भी अचिन्त्य है।
'निगम नेति सिव ध्यान न पावा।
मायामृग पाछें सो घावा' ।।
उसका कोई ध्यान नहीं कर पाता; वह ध्यान में नहीं आता। यह मायामृग मन है। वेद, मन और इन्द्रियाँ जिसको नहीं जान पातीं वह, कपटीमन-मृग के पीछे-पीछे चला जा रहा है। कहीं छोड़ता ही नहीं है। जहाँ मन है, वहाँ क्या है? क्या वहाँ साक्षी नहीं है? जहाँ मन गया, वह माया और मन, कपट का बना मन, माया का बना मन है। लेकिन, जिसको कोई नहीं जान सकता, वह माया के मन के पीछे, उस मन के पीछे-पीछे धावा। कौन धावा? मन के पीछे उसे देखना और न हो तो कहना। चाहे जहाँ मन जाए, यदि मन के पीछे चेतन साक्षी न मिल जाए, तो कहना।
'मायामृग पाछें सो घावा' जिसको ध्यान से नहीं पाते, उसे देखो कि वह मन के पीछे-पीछे फिर रहा है। वह मौजूद है; पर आपको उसे ढूँढने का ढंग नहीं आता। बिना गुरू के मन का अज्ञान और नासमझी नहीं मिटेगी। तुम ढूँढते-ढूंढते हार जाओगे, पर वह नहीं मिलेगा। यह बात गुरू की कृपा से, सन्तों की कृपा से, ज्ञानी महापुरुषों की कृपा से ही जानी जाती है।
ध्यान में कोई उजेला देखता है; कोई किसी में मन समाहित करता है। लेकिन, मैं कहता हूँ कि मन को बिलकुल खुला छोड़ दो। उसे समाहित न करो; पर, मन को ठीक-ठीक जानो । मन को जानकर यह जानो कि मन जिसमें गया वह ब्रह्म नहीं है और मन भी बह्य नहीं है। पर, मन को जो जानता है, जो मन को जान रहा हो; उसे अभी ही जानो। यह नहीं कि मन के जानने वाले को धीरे-धीरे जानेंगे। कब जानोगे ? क्या मन को जानने वाला उस समय मौजूद नहीं होता है? जब मन को जानने वाला उस समय मौजूद होता है, तो फिर कब मिलेगा वह ? साल दो साल में मिलेगा ?
लोग कहते हैं कि मन धीरे-धीरे लगेगा। धीरे-धीरे मन लगाओगे और उसे समाधि में ले जाओगे। मन के जाने को जो जानता है, उस समय तुम अपने से पूछो कि जो मन को जानता है, वह है कि नहीं? और यदि है, तो वह कौन है? तुम ही हो कि कोई और है? उस समय तुम जानोगे कि तुम ही साक्षी हो। तुम ही राम हो, तुम ही शिव हो और तुम ही चैतन्य हो ।
तुम राम को, कृष्ण को, शिव को और चिदाकाश को अपने से भिन्न मानकर जानने में लगे हो। तुमने जिसे जाना है, वह जड़ाकाश, विषयाकाश, जगत्, पदार्थ और माया है। तुम ब्रह्म को नहीं जान पाए। जानने की कोशिश की, तो भटक गए। जाने हुए को छोड़कर भटक गए। जो जानता है, यदि उस पर दृष्टि जाती, तो उसी दिन तुम स्वरूप को जान जाते ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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