"वृत्ति के प्रवाह में साक्षी रहना"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वृत्ति के स्थिर होने पर मेरी समाधि लग गई, यह ज्ञान योगियों का है; वेदान्तियों का नहीं। वेदान्तियों के ज्ञान में तो वृत्ति के प्रवाह में साक्षी रहना है, असंग रहना है. निष्काम रहना है: वृत्ति से तादात्म्य नहीं करना है। जैसे स्वप्न से जगते ही, स्वप्न का बाध कर देते हो, ऐसे ही वृत्ति का तुरन्त बाध कर दो। जब दूसरी वृत्ति उठे, तो उसका भी बाध कर दो। जैसे हार बार जगकर स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं, ऐसे ही प्रत्येक वृत्ति, जो पैदा होती है, वह स्वप्नवत् कल्पना है; इसलिए, वृत्ति को वृत्ति कहकर, कल्पित करके, तुरन्त छोड़ दो। कुछ नहीं है और अन्त में तुम शुद्ध हो, तुम मुक्त हो, तुम साक्षी हो और तुम अविनाशी हो।
मन की किसी भी वृत्ति को, जो उठे; जानो और उसे प्रकाशो। इतना ही बार-बार निश्चय करते रहो कि यह मेरा स्वरूप नहीं है। यह मैं नहीं हूँ। एक वृत्ति क्षणभर के लिए मुझमें होती है। फिर दूसरी वृत्ति उठती है और फिर तीसरी वृत्ति उठती है। इस तरह से वृत्तियाँ उठती रहती हैं और मैं बना रहता हूँ। जो होती रहती है और जो रहता है, इन दोनों में फर्क है। जो हो-होकर मिटता है, वह कल्पित है और जो बना रहता है, वह सत् है। आप सत्य है, वृत्तियाँ कल्पित हैं। ये गुण हैं, तुम निर्गुण हो। ये मायिक हैं, तुम ब्रह्म हो। ये जड़ है, तुम चैतन्य हो। ये ज्ञात हैं, तुम ज्ञाता हो; तुम साक्षी हो। ये प्रकाशित है, तुम प्रकाशक हो। तुम्हारा इनका क्या तालमेल ? पर हैं इकट्ठे ।
गहने का और सोने का स्वरूप नहीं मिलता। यह सीमित है, वह असीम है। यह न रहने वाला है, वह रहने वाला है। यह बदलता रहने वाला है, वह हमेशा रहने वाला है। लेकिन, दोनों ही इकट्ठे रहते हैं। साथ तो रहते हैं। यह हम नहीं कहते कि साथ नहीं रहते। साथ तो रहते हैं, लेकिन, दोनों के लक्षण अलग-अलग हैं। एक का लक्षण और, दूसरे का लक्षण और। तुम अपने लक्षण पहचानो। तुम भागो नहीं, जागो । भागो नहीं, कुछ करो नहीं, केवल परखो ।
तुम्हारा स्वरूप क्या है और वृत्ति का स्वरूप क्या है? वृत्ति का स्वरूप है, उत्पन्न होकर विलय होना। वृत्ति का स्वरूप है, गतिमान रहना, बदलते रहना। साक्षी का स्वरूप है, एक हिना। ध्यान में तो साक्षी बदल जाता होगा ? तुम वृत्ति हो कि साक्षी हो ? साक्षी हो, तो शिकायत सानो कि नहीं? क्या तुम ध्यान के बाद उठकर शिकायत करोगे कि तुम ध्यान में ठीक नहीं कसके ? तुम ठीक रहते हो या बदलते रहते हो ? ठीक रहते हो। ध्यान में क्या अनुभव करोगे ? बैंक रहे या बदलते रहे ? यदि यह अनुभव करोगे कि बदलते रहे, तो शिकायत करोगे कि स्थान नहीं लगा। साक्षी का अनुभव किए बिना ही ध्यान की शिकायत करते हो।
जब तक तुम अपने को साक्षी नहीं जानते, तब तक ध्यान की शिकायत कभी नहीं मिट सकती। लाख तुम रोज ध्यान लगाओ, रोज समाधि लगाओ, लेकिन, साक्षी को तुम जब तक मैं नहीं समझोगे, वृत्तियों को 'मैं' कहते रहोगे; वृत्तियों को 'मैं ' महसूस करते रहोगे, तब तक रोज सबेरे भले ही घण्टों मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करो, सफलता नहीं मिलेगी। किसी दिन कहोगे कि आज तो थोड़ी देर बहुत अच्छा ध्यान लगा; पर, पूरे टाइम ध्यान नहीं लगा। बीच-बीच में गड़बड़ होती रही। शिकायत मिटाना है, तो स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करो। साधना न करो। क्योंकि-
'यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई।'
स्वरूप का अनुभव, कोई भाग्यवान् ही, गुरुओं की कृपा से प्राप्त कर पाता है। यह करने-धरने से प्राप्त नहीं होता। करने-धरने से तो वृत्ति ठीक रहेगी। वृत्ति ठीक करके कहोगे कि इतनी देर तो मजा आया, फिर नहीं आया। पहले बहुत आनन्द आता था, अब नहीं आता । ऐसी वृत्ति दिनभर नहीं रहती। तुम नहीं रहते या वृत्ति नहीं रहती? असल में, यह शिकायत इसलिए है कि तुम अभी अपने को साक्षी न जानकर, वृत्ति को ही 'मैं' मानते हो। वृत्ति को ठीक जानकर कहते हो कि आज तुम ठीक रहे; आज तुम बहुत अच्छे रहे। असल में वृत्ति के साथ तुम्हारा इतना मेल हो गया है कि वृत्ति बिगड़ती है, तो तुम अपने को बिगड़ा समझते हो।
जिससे तुम्हारा रिश्ता होता है, यदि उसकी तबियत खराब हो, उसका अपमान हो, वह बीमार हो, तो साथी होने के कारण, तुम पर भी प्रभाव पड़ता है कि नहीं? तुम पर प्रभाव पड़ता है, लेकिन, साक्षी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अच्छा यह बताओ कि तुम वृत्ति के, बुद्धि के साथी हो या साक्षी हो? हम साक्षी हैं। उत्तर तो सही देते हो। उत्तर तो तुम्हें रट गए हैं। लेकिन, अभी तो तुम साथी ही हो। यदि वेदान्त की परीक्षा हो, तो तुम्हें पूरे नम्बर मिलेंगे । पर, जीवन की कसौटी में तुम फेल हो। तुम्हारी शिकायत ही यह बतलाती है कि जीवन की कसौटी में तुम फेल हो। तुम शरीर नहीं हो; शरीर तुम्हारा नहीं है। बुद्धि तुम्हारी नहीं है और बुद्धि के धर्म तुम्हारे धर्म नहीं हैं।
जिस दिन आप अपने अनुभव में यह देखेंगे कि वृत्तियाँ बदलती हैं और 'मैं' ज्यों का त्यों रहता हूँ, उसी दिन तुम्हें साक्षी का अनुभव हो गया। साक्षी का अनुभव होने से ही तर जाओगे। क्या तब साक्षी नहीं था, जब तुमने वेदान्त नहीं सुना था ? साक्षी तो तब भी था। क्या साक्षी आगे नहीं रहेगा ? आगे भी साक्षी रहेगा। लोग वेदान्त सुनाते हैं; लेकिन, अनुभव पर जोर नहीं देते। इसीलिए, लोगों के अन्तःकरण में तृप्ति नहीं आई; सन्तुष्टि नहीं आई। लोगो का अन्तःकरण लाभान्वित नहीं हुआ। जो जानेगा, वह सुखी होगा। इसको केवल सुनके जानना नहीं है; इसका अनुभव करना है-
'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।'
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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