'मैं' से मुक्ति (भाग-1)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
जो बोलेगा, वही पकड़ा जाएगा। इसीलिए, कई ज्ञानी बोलते नहीं थे; जान जाते थे। जब बोलोगे, तो बुद्धि से, जबान से उत्तर दोगे। जब देह और बुद्धि के द्वारा तुम कहोगे कि तुम सर्वत्र हो; तो लोग कहेंगे कि फिर सबके बारे में बताओ? श्रोता ईमानदारी से कहे कि 'मैं' हूँ तो चेतन, मेरे अंहकार, और बुद्धि का बाध कर दो, फिर सब जगह प्रकाशक 'मैं' ही हूँ। लेकिन, देह और बुद्धि द्वारा उत्तर मत देना। उत्तर देने वाली बुद्धि अपूर्ण है, पर,'मैं' पूर्ण हूँ। यदि, बुद्धि द्वारा पूछोगे, तो बुद्धि उत्तर नहीं दे पाएगी, क्योंकि, बुद्धि ब्रह्म नहीं है, मन बह्य नहीं है, अहंकार बह्य नहीं है।
बह्म तो किसी को भी उत्तर देता ही नहीं है। पर, बह्म, के विषय में जब कहोगे कि 'मैं' बह्म हूँ; तब कहोगे कि ये 'मैं' क्या है? उत्तर कौन दे रहा है? कल्पित 'मैं' यथार्थ 'मैं' के विषय में उत्तर देता है? यथार्थ 'मैं' व्यापक है; बह्म है। इसीलिए जब वाला ब्रह्म नहीं है, तो सीधा-सीधा यह कह दे कि ब्रह्म ऐसा है; यह अंहकार है। वह 'मैं' बह्य नहीं हूँ न कहे; तो भी चलेगा। उत्तर देने ऐसा नहीं
आज तुमको, बिलकुल ठीक प्रक्रिया, उलटी मालूम पड़ेगी; लेकिन, यह बोध के लिए बहुत अच्छी है। इसके बिना आपका सूक्ष्म अहं नहीं जाएगा। आप कभी मत कहो कि 'मैं' ब्रह्म हूँ। ब्रह्म को थर्ड पर्सन की भाषा में बोलो। ब्रह्म सबमें है; ब्रह्म चेतन है; ब्रह्म ही अहं-वृत्ति का और बुद्धि का प्रकाशक है। वह एक ही चेतन, सबका प्रकाशक है।
तुम दिमाग से 'मैं' मत सोचो। 'मैं' प्रकाशक हूँ, यह दिमाग की उपज है। आपने जहाँ दिमाग जोड़ा, वहीं सीमित हो गए। दिमाग इस देह में है और इस देह से पैदा हुआ है। दिमाग इस देह से सम्बन्धित है; इसलिए, दिमाग से दुःख को, चिन्ता को, बुढ़ापे को और दर्द को जानोगे। लेकिन, इस दिमाग से दूसरे शरीर के दर्द नहीं जान सकोगे ।
दर्द को जानने में जो निमित्त है, वह बुद्धि और अंहकार है। जो सबमें है, वह चेतन है। बुद्धि, चेतन में ही है; अहंकार भी चेतन में ही है। लेकिन, चेतन अंहकार नहीं है; चेतन सीमित नहीं है और बह्य सीमित नहीं है। ब्रह्म अविभाज्य, अखण्ड, एक है; उस अखण्ड, एक, अविभाज्य परमात्मा की सत्ता बुद्धि को मिली। बुद्धि, उस चेतन की चेतनता लेकर, आप चेतन बन गई और कहती है कि 'मैं' जानती हूँ।
आग में थोड़ी देर को लोहे के टुकड़े को डाल दो। तवा, कील, चिमटा, संडसी और लोहे का टुकड़ा डाल दो। कुछ देर बाद लोहे की सब चीजों को निकाल लो या मान लो कि वे अपने आप ही निकल आवें। निकल के वे किसी को जला दें। तो तवा कहेगा कि उसने जलाया; कील कहेगी कि उसने जलाया; चिमटा कहेगा कि उसने जलाया और संडसी कहेगी कि उसने जलाया। वास्तव में क्या संडसी ने जलाया है? फिर संडसी क्यों कहती है कि उसने जलाया है? तवा क्यों कहता है कि उसने जलाया है? कील क्यों कहती है कि उसने जलाया है? यह क्यों नहीं कहते कि वे तो लोहा हैं, जलाया तो आग ने है। एक ही ने सबको जलाया है।
इसी तरह से वह भी बुद्धि है, यह भी बुद्धि है। ये सब संडसी, तवा और चिमटे की तरह, चेतन आग में पड़ी हैं। ये चेतन आग की सत्ता से चमक कर, सचेत होकर, इसको जानती हैं और उसको जानती हैं। सबका जानना अलग-अलग है। कहते हैं कि 'मैंने' ही इसे जाना है, 'मैंने' ही इसे जाना है। तुमने जाना है या चेतन ने जाना है? जाना तो चेतन ने ही है। फिर, चेतन के ज्ञान को अपना बनाकर बेईमानी क्यों करते हो? इसीलिए, बेईमान आदमी ही बँधे हुए हैं। बेईमान आदमी ही बद्ध हैं। ईमानदार आदमी तो मुक्त हो गए।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
शेष दूसरे भाग में
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