निश्चय कभी निराधार नहीं हुआ करता। हम मरते हैं, इस निश्चय का भी आधार है। वह है दृश्य से तादात्म्य। आप मर जाएँगे, यह निश्चय आपको इस बात से है कि आप आदमी हैं। आप जन्मते हैं, आप देह हैं, आप बूढ़े हो जाएँगे और आप मर जाएँगे; ये जो विचार आपके मन में उठ रहे हैं, क्या आप उन्हें उठा रहे हैं? क्या आप यह निश्चय कर रहे हैं कि आप मर जाएँगे? आप यह निश्चय करके दिखाओ कि आप नहीं मरेंगे ?
तुम्हें यह लगता है कि तुम देह हो। यह अपरोक्ष है। मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, मैं मर जाऊँगा, यह निश्चय तो स्वतः ही होता है। बल्कि, यह कहो कि यह निश्चय हटाए नहीं हटता। यह निश्चय हट भी नहीं सकता। यह सर्प नहीं है; यह सर्प नहीं है यह सौ वर्ष तक रटते रहो। यह सर्प नहीं है; यह इसीलिए रटना पड़ता है कि तुम्हें रस्सी का ज्ञान नहीं है। तुम्हें रस्सी का ज्ञान हो जाए, तो सर्प नहीं है। क्या यह भी कहना पड़ेगा ? इसीलिए, जो नहीं है, वह मालूम पड़े और जो है, वह भी मालूम पड़े।
'नहीं है' का परिवर्तन तो हमारे यहाँ दूसरे तरीके से भी मान लिया गया है। यह सर्प नहीं है, यह ज्ञान होने पर भी दूसरा भ्रम हो जाता है कि कोई पेशाब कर गया है। यहाँ डर से मतलब नहीं है; भ्रम से ही मतलब है। वहाँ चाहे साँप दिख रहा हो या पेशाब की लकीर दिख रही हो। किसी ने पेशाब कर दी है और यह पेशाब की लकीर है। अब पेशाब करने वाले के लिए गाली आ रही है। पहले आप डर रहे थे, अब आप द्वेष कर रहे हैं। कैसे नालायक लोग है, जो मैदान में ही पेशाब कर गए ?
पेशाब कोई भी नहीं कर गया है। लेकिन, अब इस समस्या का समाधान कैसे हो? रस्सी में साँप दिखे अथवा रस्सी में पेशाब की लकीर दिखे, यह भ्रम कैसे दूर हो ? एक आदमी को फर्श में दरार दिखलाई देती है। वह दरार नहीं है; वहाँ रस्सी पड़ी है। वह रात को दरार लगती है। यह सर्प नहीं है, तो पेशाब की लकीर है और पेशाब की लकीर नहीं है, तो दरार है। एक निश्चय हटाया, तो दूसरा निश्चय किया। निश्चय हटाया नहीं, ऐसा लगता गया। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा लगता गया। लेकिन, यह अभी तक नहीं लगा कि रस्सी है। यदि, रस्सी है, यह लगने लगे; तो फिर तीनों का क्या होगा ? तीनों समाप्त ।
मैं स्थूल शरीर हूँ, मैं सूक्ष्म शरीर हूँ और मैं कारण शरीर हूँ ये जो तीन भ्रम हैं, ये साक्षी के अज्ञान से ही हैं। क्योंकि
'जाग्रत स्वप्न सुषुप्ती, हैं बुद्धि की अवस्था।
हूँ बुद्धि से परे मैं, याते सदा शिवोऽहम् ॥'
तुम बुद्धि से परे हो, यह पहले जानो। जानने के बाद, अपरोक्ष अनुभव के बाद, प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद, निश्चय अपने आप ही हो जाता है। जगत् में प्रत्यक्ष ज्ञान ही निश्चय है। जिसको सर्प-निश्चय हुआ है, उसे भी प्रत्यक्ष दिखता है कि यह साँप है। दिखना ही तो निश्चय है। इसी तरह से, आप निर्विकार हैं यह मालूम पड़े; तो निश्चय होगा। वृत्तियों के बदलने में, नित्य विद्यमान एकरस आपकी उपस्थिति है। वृत्तियों के परिवर्तन का, साक्षी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह तुमको अपरोक्ष अनुभव होने पर विदित होगा। जग जाने पर, स्वप्नों का प्रकाशक ही शेष बचा; स्वप्न नहीं बचे। अब जो कुछ है, यह तो जाग्रत का है; स्वप्न का नहीं है। साक्षी को छोड़कर, स्वप्न का जाग्रत में कुछ नहीं आता और जाग्रत का स्वप्न में कुछ नहीं जाता।
एक गहने को तोड़कर नया गहना बना देते हैं। नए गहने में पुराने गहने का कोई अस्तित्व नहीं है। नए गहने को तोड़कर फिर बदलो। अब, बदले हुए गहने में, नए गहने का जरा भी अस्तित्व नहीं है। नया गहना जीरो हो गया और बदला हुआ गहना पूरा हो गया। यह जीरो हो गया; वह पूरा हो गया। यह वहाँ नहीं है; वह यहाँ नहीं है और एक वहाँ भी था और एक यहाँ भी है। उसका नाम तो तुम जानते ही हो। वह सोना है। इसी तरह से, स्वप्न में स्वप्न पूरा था; जगत् नहीं था और जाग्रत में यह जगत् पूरा है; स्वप्न जीरो हो गया है। वह पूरा दिखता था, पूरा था नहीं; वही यह अधूरा हो गया। पूरा दिखना अलग है और पूरा होना अलग है। स्वप्न पूरा दिखता था। लेकिन, जागने पर पता चला कि स्वप्न तो कुछ भी नहीं है; साक्षी है। अब, जगत् सच दिखता है; पर अब भी साक्षी ही पूरा है; जगत् पूरा नहीं है। साक्षी ही है और वह सदा है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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