यह संसार अपने विविध रूपों, रंगों और अनुभवों के कारण अत्यंत आकर्षक प्रतीत होता है, परंतु अद्वैत वेदांत के आलोक में जब हम इसके वास्तविक स्वरूप पर विचार करते हैं, तो ज्ञात होता है कि यह केवल एक माया है—एक भ्रम, जो आत्मा के असली स्वरूप से हमें दूर रखता है। इसी के मध्य "विवेक"—यानी "सत् और असत्" का भेद करना—एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधन बन जाता है। आदि शंकराचार्य ने "विवेकचूडामणि" में स्पष्ट कहा है—"ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः"—अर्थात् ब्रह्म ही सत्य है, यह जगत् मिथ्या है, और जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, कोई भिन्न वस्तु नहीं। यह विवेक ही साधक को इस मिथ्यात्व के जाल से मुक्त करता है और आत्मा की ओर उन्मुख करता है।
शंकराचार्य अपने ग्रंथों में बारंबार यह बताते हैं कि 'विवेक' ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है। 'विवेकचूडामणि' में वे कहते हैं—"दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥" अर्थात् मनुष्य जन्म, मुक्त होने की तीव्र इच्छा और सत्संग, ये तीनों दुर्लभ हैं और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होते हैं। इन दुर्लभ साधनों में विवेक का जागरण सर्वोपरि है, क्योंकि जब तक साधक यह नहीं जानता कि क्या असत्य है और क्या शाश्वत सत्य है, तब तक वह भ्रम में ही जीवन व्यतीत करता है।
विवेक का आरंभ ही इस विचार से होता है कि यह शरीर, मन, इंद्रियाँ और संपूर्ण जगत् नश्वर है, परिवर्तनशील है, इसलिए यह असत्य है। वहीं जो सदा एकरस, अविकार, निर्गुण, निराकार और अखंड है—वह ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। शंकराचार्य कहते हैं—"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।" अर्थात् जो असत्य है उसका अस्तित्व नहीं होता, और जो सत्य है उसका कभी अभाव नहीं होता। इस श्लोक में वे गीता का उल्लेख करते हुए स्पष्ट करते हैं कि केवल वही वस्तु सत्य कही जा सकती है जो काल, स्थान और वस्तु की दृष्टि से अपरिवर्तनीय हो।
शंकराचार्य की दृष्टि में विवेक का मूल उद्देश्य आत्मा और अनात्मा में भेद करना है। 'विवेकचूडामणि' में वे लिखते हैं—"आत्मा सत्यं तदन्यत्वं मिथ्या"। आत्मा ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि जगत् का कोई अस्तित्व ही नहीं, बल्कि इसका अर्थ है कि उसका अस्तित्व केवल व्यवहार के स्तर पर है, परमार्थतः वह ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह भेदभाव का ज्ञान ही साधक को असत्य के आकर्षण से मुक्त करता है। जब तक यह विवेक नहीं होता, तब तक व्यक्ति देह, मन, और बुद्धि को ही आत्मा समझता रहता है और इसी भ्रांति में जन्म-मरण के चक्र में बंधा रहता है।
आदि शंकराचार्य की भाषा में—"ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरूपं, नित्यमुक्तं निरवद्यम्।" ब्रह्म सदा ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप और शुद्ध है। इसे जानने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि जो कुछ भी बदलता है, वह असत्य है। शरीर बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक बदलता है, मन में विचार आते-जाते रहते हैं, पर आत्मा सदा एक सी रहती है। यही 'विवेक' है—इन दोनों के बीच का स्पष्ट भेद। विवेक के बिना यह ज्ञान नहीं हो सकता, और ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं।
शंकराचार्य यह भी बताते हैं कि विवेक के साथ-साथ वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुता भी आवश्यक हैं, पर विवेक ही सबसे पहली और अनिवार्य सीढ़ी है। वे कहते हैं—"नित्य अनित्य वस्तु विवेकः परमार्थदर्शनाय मूलं"। नित्य और अनित्य वस्तु का भेद ज्ञान का मूल है। यह भेद ही साधक को इस संसार की अस्थिरता का बोध कराता है और ब्रह्म की ओर उन्मुख करता है। शंकराचार्य का मानना है कि जब यह विवेक जाग्रत होता है, तब साधक के लिए संसार के विषयों में कोई आकर्षण नहीं रह जाता।
'विवेकचूडामणि' में एक सुंदर श्लोक है—"कोऽहं कुतोऽहमायतः का मे जननी को मे तातः।" अर्थात्—मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? मेरी माता कौन है? मेरे पिता कौन हैं? जब यह प्रश्न भीतर से उठते हैं, तभी विवेक का आरंभ होता है। ये प्रश्न साधक को आत्मा की ओर ले जाते हैं। यही वह प्रक्रिया है जो आत्मज्ञान की दिशा में प्रारंभिक कदम है। विवेक साधक को बताता है कि न मैं शरीर हूँ, न मन, न बुद्धि—मैं तो शुद्ध चेतन आत्मा हूँ।
विवेक से युक्त व्यक्ति जानता है कि संसार की वस्तुएँ क्षणिक हैं। सुख-दुख, यश-अपयश, लाभ-हानि—ये सब मन की अवस्थाएँ हैं, जो आत्मा से संबंधित नहीं हैं। आत्मा तो निरपेक्ष है, साक्षी है। शंकराचार्य कहते हैं—"स्वस्वरूपेण स्थितोऽसि त्वं न तु बुद्ध्या विलक्षणः।" तू अपने स्वरूप में ही स्थित है, बुद्धि के द्वारा अलग नहीं किया जा सकता। यह स्पष्ट करता है कि विवेक से प्राप्त ज्ञान बौद्धिक नहीं, अनुभवजन्य है—जो केवल अभ्यास, साधना और गुरु के निर्देश से प्राप्त होता है।
शंकराचार्य बारंबार यह कहते हैं कि जब तक हम 'अनात्मा'—यानी देह, मन, बुद्धि को आत्मा समझते हैं, तब तक विवेक जाग्रत नहीं होता। जब हम इस भ्रांति को छोड़ते हैं, तभी आत्मा का बोध होता है। वे कहते हैं—"नाहं देहो न मे देहो बुद्धिरात्मा न चास्याहम्।" न मैं देह हूँ, न मेरी देह है, बुद्धि आत्मा नहीं है और न ही मैं बुद्धि हूँ। यह विवेक का शिखर है—जहाँ साधक आत्मा और अनात्मा का भेद जानकर केवल आत्मा में स्थित हो जाता है।
अंततः शंकराचार्य का उपदेश यही है कि विवेक के बिना आध्यात्मिक यात्रा आरंभ नहीं हो सकती। यह वह दीपक है जो अज्ञान के अंधकार को मिटाता है। विवेक ही वह दृष्टि है जिससे साधक देखता है कि जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह बदलने वाला है, और जो अदृश्य है—परंतु सदा उपस्थित है—वही आत्मा है। जब यह भेद साधक को स्पष्ट हो जाता है, तब ही वह ब्रह्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है। शंकराचार्य का जीवन और शिक्षाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि विवेक ही वह ध्रुवतारा है जो साधक को मोक्ष की दिशा में मार्गदर्शन देता है।