"वैराग्य: नश्वर से वैराग्य"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मनुष्य जन्म अद्वितीय है, क्योंकि इसमें आत्मचिंतन और तत्त्वबोध की क्षमता निहित है। इस क्षमता का सर्वोच्च प्रयोग आत्मा के स्वरूप की खोज में होता है, और यही खोज हमें वैराग्य की ओर ले जाती है। वैराग्य का अर्थ केवल संसार का त्याग नहीं है, बल्कि उस आंतरिक परिवर्तन से है जिसमें व्यक्ति असार वस्तुओं में रुचि खो बैठता है और शाश्वत सत्य की ओर आकृष्ट होता है। यह स्थिति नकारात्मक भावना नहीं, बल्कि सूक्ष्म समझ का परिणाम है।
वैराग्य का मूल आधार नश्वरता की गहराई से पहचान है। संसार की वस्तुएँ—धन, पद, यश, इंद्रिय-सुख—समय के साथ समाप्त हो जाते हैं। जब यह सत्य गहराई से हृदय में उतरता है, तब उनमें आकर्षण स्वतः छूट जाता है। यह त्याग जब विवेक की पृष्ठभूमि पर होता है, तब वह केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि स्थायी होता है। इसीलिए विवेकचूडामणि (श्लोक 19) में आदिशंकराचार्य कहते हैं, "इहामुत्रार्थफलभोगविरागः।" अर्थात वैराग्य केवल इस जीवन के भोगों से ही नहीं, परलोक की आकांक्षाओं से भी विरक्ति का नाम है।
साधक जब यह अनुभव करता है कि भोगों की प्राप्ति और उपभोग के पश्चात भी मन तृप्त नहीं होता, तब उसका रुझान भीतर की ओर होने लगता है। यह अनुभव प्रारंभिक वैराग्य को जन्म देता है, जिसे शास्त्र 'अपरवैराग्य' कहते हैं। यह वैराग्य परिस्थितियों, रोग, असफलताओं या अपनों की मृत्यु से उपजा हो सकता है, परंतु जब यह शुद्ध विवेक के कारण जाग्रत होता है, तब वह 'परवैराग्य' कहलाता है—जो अडिग और गहरा होता है। आत्मबोध में शंकराचार्य कहते हैं—"विषयविषक्तं मनो न यति ब्रह्मणि योगतः," अर्थात जो मन विषयों में उलझा है, वह ब्रह्म में स्थिर नहीं हो सकता।
गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि सच्चा वैराग्य किसी कर्म का त्याग नहीं, बल्कि कर्म के फल की अपेक्षा का त्याग है। वे कहते हैं—"अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च।" (6.1)। यह शिक्षा वैराग्य को सन्यासियों की सीमा से बाहर निकाल कर सामान्य गृहस्थ के लिए भी सुलभ बनाती है। गृहस्थ रहकर भी जब व्यक्ति कर्तव्य करता है, लेकिन फल की चिंता नहीं करता, तब वह वैराग्य में स्थित होता है।
अक्सर लोग वैराग्य को निराशा या जीवन से पलायन समझ लेते हैं, परंतु शास्त्र इसे सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं। वैराग्य तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति जीवन की क्षणभंगुरता को देखकर भीतर की शांति की ओर मुड़ता है। यह मन की उस स्थिति का नाम है जहाँ विषयों के होते हुए भी मन उनमें रमा नहीं रहता। भगवद्गीता (2.71) में कहा गया है—"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः, स शान्तिमधिगच्छति।" यह शांति वैराग्य का ही फल है।
ब्रह्मसूत्र का आरंभ "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" से होता है। शंकराचार्य इस पर भाष्य करते हुए कहते हैं कि यह जिज्ञासा तभी उपजती है जब व्यक्ति संसार के प्रयोजन से पूर्णतः संतुष्ट या विरक्त हो जाता है। अर्थात वैराग्य ही वह स्थिति है जो व्यक्ति को ब्रह्म की ओर मोड़ती है। यहाँ वैराग्य साधना की पूर्व-शर्त है, न कि परिणाम।
साधना चतुष्टय में वैराग्य का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। शंकराचार्य कहते हैं कि नित्य और अनित्य का विवेक हो जाने के बाद जब व्यक्ति अनित्य वस्तुओं से मुंह मोड़ता है, तब वैराग्य जागता है। इसके बिना भले ही व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करे, पर उसका मन सत्य में स्थिर नहीं हो सकता। यही कारण है कि विवेकचूडामणि (श्लोक 3) में शंकराचार्य ने कहा—"वैराग्यमेवोत्तरदुर्लभं हि।" अर्थात सच्चा वैराग्य अत्यंत दुर्लभ है।
वैराग्य की उत्पत्ति केवल शास्त्रपठन से नहीं होती, यह तो जीवन की अनुभूतियों और तत्त्वचिंतन का फल है। जब साधक देखता है कि यश, प्रेम, संपत्ति, संबंध—सब कुछ समय के साथ बदलता है, और कोई वस्तु उसे स्थायी संतोष नहीं देती, तब वह आत्मा की ओर उन्मुख होता है। यह उन्मुखता ही वैराग्य की शुरुआत है। वैराग्य का आशय यह नहीं कि जीवन को छोड़ दिया जाए, बल्कि जीवन को समझ कर, उसकी सीमाओं को पहचानकर जीया जाए।
गृहस्थ जीवन में रहकर भी यदि कोई व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर को अर्पण करते हुए, समता भाव से करता है और परिणामों में आसक्ति नहीं रखता, तो वह भी वैराग्यवान है। श्रीकृष्ण गीता (5.10) में कहते हैं—"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।" यह दृष्टिकोण जीवन को वैराग्य से जोड़ता है बिना उसे त्यागे।
वैराग्य में मन का निग्रह आवश्यक नहीं होता यदि दृष्टिकोण बदल जाए। जब मन को यह समझ में आता है कि जिसे वह प्रिय समझ रहा है, वह नाशवान है, तो उसमें स्वतः विरक्ति आती है। यह प्रक्रिया संघर्ष नहीं, जागरूकता की है। साधक शांति और स्थिरता की खोज में जब अपने भीतर उतरता है, तो उसे अनुभव होता है कि सब कुछ बदल रहा है, परंतु जो उसे देख रहा है—वह आत्मा, अचल और शुद्ध है। यही आत्मा का बोध वैराग्य को पुष्ट करता है।
विवेकचूडामणि (श्लोक 76) में शंकराचार्य कहते हैं—"यस्मात्सर्वं जगदेतदनात्मा तेनास्य त्यागोऽवश्यं कर्तव्यः।" अर्थात जो कुछ भी अनात्मा है—उसका त्याग करना आवश्यक है। यह त्याग मानसिक है, भौतिक नहीं। जब यह भेद स्पष्ट हो जाता है, तब ही आत्मा में स्थिरता आती है।
सच्चा वैराग्य साधक को अहंकार से भी मुक्त करता है। जब व्यक्ति जानता है कि मैं शरीर, मन, बुद्धि नहीं हूँ—तो वह कर्म का भोक्ता भी नहीं रहता। तब वह कर्म करता है पर उनमें लिप्त नहीं होता। यही वैराग्य कर्मयोग का मूल है। श्रीकृष्ण बार-बार गीता में कहते हैं कि कर्म त्याग नहीं, फलासक्ति का त्याग करो—वही सच्चा योग है, वही वैराग्य है।
अंततः वैराग्य केवल साधन नहीं, यह आत्मज्ञान की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। जब साधक संसार की नश्वरता को पूरी तरह पहचान लेता है और आत्मा में स्थिर होता है, तब ही उसे ब्रह्म की अनुभूति संभव होती है। वैराग्य वह दीप है जो तत्त्वज्ञान की दिशा को प्रकाशित करता है। बिना वैराग्य के मन बाहर भटकता रहता है, और आत्मा का प्रकाश दिखता नहीं।
वैराग्य का अभ्यास केवल जीवन के अंत में नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षण में हो सकता है। जब हम छोटी-छोटी बातों में प्रतिक्रिया देना छोड़ देते हैं, जब हमारे निर्णय वस्तुओं या लोगों की अपेक्षा से मुक्त होते हैं, जब हम वर्तमान में टिकना सीख जाते हैं, तब वैराग्य धीरे-धीरे जीवन में उतरने लगता है। यह वैराग्य नीरस नहीं, बल्कि अत्यंत सौम्य, गहरा और प्रसन्न होता है। यह ही अंततः उस अनुभव में बदलता है जहाँ साधक कह सकता है—"नेह न किंचित् करोमि, अहं ब्रह्मास्मि।"
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
"To read this blog, click on the link given above 👆."
इस ब्लॉग को पढ़ने के लिए ऊपर दिए गए 👆 लिंक पर क्लिक करें।
"You can read this blog in any language. All you need to do is click on the translate button provided at the top left corner of the page. By clicking it, you can read it in your preferred language."
आप इस ब्लॉग को किसी भी भाषा में पढ़ सकते हैं आपको बस इतना करना है कि पेज के ऊपर बायें हिस्से में ट्रांसलेट का बटन दिया गया है। आप उसे क्लिक कर के अपनी मनपसंद भाषा में इसे पढ़ सकते हैं।
Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.
#vedantaphilosophy #AdiShankaracharya #advaita #advaitavedanta #hinduism #hindu #sanatan #sadhanapath #sadhanpath #sadguru #meditation #VedantaWisdom #sadhanapathofficial #insight #wise #wisdom #wisdomquotes #oneness #humanity #SpiritualJourney #DivineKnowledge #SacredTeachings #InnerPeace #SelfRealization #TimelessWisdom #ConsciousLiving #SpiritualAwakening