"वेदांत के साधना मार्ग में 'षट्संपत्तियों" का महत्व"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वेदांत के साधना मार्ग में 'षट्संपत्ति' को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह छह आंतरिक गुणों का ऐसा समुच्चय है जो seeker को आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर करता है। प्रथम संपत्ति 'शम' है, जिसका तात्पर्य है चित्त की शांति या मन का नियंत्रण। मन सदैव विषयों की ओर भागता रहता है, और उसे संयम में लाना ही शम है। जैसे विवेकचूडामणि में कहा गया है:
"शमो मनःप्रशम उच्यते।"
अर्थात् शम का अर्थ है मन का शांत हो जाना।
मन के नियंत्रण के बिना आत्मज्ञान असंभव है, क्योंकि चंचल मन स्थिर ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सकता। भगवद्गीता (छठा अध्याय, श्लोक 26) में श्रीकृष्ण कहते हैं:
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥"
अर्थ: यह चंचल और अस्थिर मन जब-जब विषयों की ओर भटकता है, तब-तब इसे नियंत्रित कर आत्मा में ही लाना चाहिए। शम का अभ्यास मन को स्थिर करता है, जिससे आत्मचिंतन और ध्यान में प्रगति होती है।
दूसरी संपत्ति 'दम' है, जो इंद्रियों का संयम है। यदि इंद्रियाँ विषयों में रत रहती हैं तो मन भी अशांत रहता है। अतः इंद्रिय निग्रह आत्मसाधना में आवश्यक है। आत्मबोध ग्रंथ में कहा गया है:
"न कश्चिद्विषयो द्वेष्यः प्रियः क्वापि न विद्यते। प्रसन्नात्मा न गृह्णाति गृह्णन्नपि न लिप्यते॥"
अर्थ: आत्मा के लिए कोई भी विषय न प्रिय है न अप्रिय। जो व्यक्ति इंद्रियों को संयमित करता है, वह विषयों का उपभोग करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता। ब्रह्मसूत्र (1.1.4) में स्पष्ट किया गया है कि आत्मसाक्षात्कार के लिए अंतःकरण की शुद्धि आवश्यक है, और यह दम के अभ्यास से ही संभव है। जब इंद्रियाँ वश में होती हैं, तो साधक का मन स्थिर और अंतर्मुखी बनता है।
तीसरी संपत्ति 'उपरति' है, जिसका अर्थ है बाह्य कर्तव्यों और विषयों से निवृत्ति। यह वैराग्य का परिपक्व रूप है, जहाँ साधक न केवल इंद्रिय संयम करता है, बल्कि समस्त क्रियाओं से निर्लिप्त होकर आत्मा में स्थित होता है। उपरति को 'स्वधर्म त्याग' भी कहा गया है, जिसका आशय है कि साधक अब केवल आत्मज्ञान की दिशा में उन्मुख रहता है। दृष्टि-दृश्य विवेक में उपरति की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि यह अवस्था साधक को सहज मौन और ध्यान में स्थिर करती है। भगवद्गीता (छठा अध्याय, श्लोक 4) में भी कहा गया है:
"योगारूढस्तदाच्यते यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।"
अर्थ: जब साधक इंद्रिय विषयों और कर्मों में आसक्ति नहीं रखता, तब वह योगारूढ़ कहलाता है। उपरति आत्मा की ओर एकाग्रता का सूचक है।
चौथी संपत्ति 'तितिक्षा' है, अर्थात् सहनशीलता। यह सुख-दुख, शीत-उष्ण, मान-अपमान जैसे द्वंद्वों को बिना विचलित हुए सहन करना है। विवेकचूडामणि में तितिक्षा को परिभाषित किया गया है:
"सहनं सर्वदुःखानां अप्रतीकारपूर्वकम्। चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते॥"
अर्थ: तितिक्षा वह है जिसमें सभी प्रकार के दुःखों को बिना प्रतिकार के और बिना मानसिक अशांति के सहन किया जाता है। आत्मज्ञान की राह में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, जिन्हें सहन कर आगे बढ़ना ही तितिक्षा है। यह धैर्य और आत्मबल का प्रतीक है। आत्मबोध में भी तितिक्षा को साधक की आंतरिक स्थिरता का आधार माना गया है।
पाँचवीं संपत्ति 'श्रद्धा' है। यह गुरु, शास्त्र और आत्मा के सत्य स्वरूप में अडिग विश्वास है। बिना श्रद्धा के न तो गुरु की वाणी प्रभाव डाल सकती है, न ही शास्त्र का गूढ़ रहस्य प्रकट हो सकता है। भगवद्गीता (चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39) में कहा गया है:
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥"
अर्थ: श्रद्धावान्, संयमी, और तत्पर साधक को ज्ञान की प्राप्ति होती है, और ज्ञान प्राप्त कर वह शीघ्र परम शांति को प्राप्त करता है। श्रद्धा साधक को हर परिस्थिति में विश्वास और उत्साह के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। ब्रह्मसूत्र (3.4.26) में भी श्रद्धा को आत्मज्ञान का मूल साधन कहा गया है।
छठी और अंतिम संपत्ति 'समाधान' है, जो चित्त की एकाग्रता और आत्मा में स्थित होने की अवस्था है। यह सभी पूर्ववर्ती गुणों का समन्वित फल है। जब मन शांत (शम), इंद्रियाँ संयमित (दम), कर्तव्यों से विरक्त (उपरति), द्वंद्व सहनशील (तितिक्षा), और गुरु-शास्त्र में विश्वासयुक्त (श्रद्धा) हो जाता है, तब मन एकाग्र होकर आत्मा में स्थित होता है। विवेकचूडामणि में कहा गया है:
"शमादिसाधनसम्पत्तिः मुमुक्षोः मोक्षकाङ्क्षिणः। यया स्यात्स्थैर्यमात्मज्ञे तां विद्धि समाधिनम्॥"
अर्थ: शम आदि साधनों से संपन्न, मुक्तिच्छु साधक को आत्मज्ञान में स्थिरता प्राप्त होती है, यही समाधि है।
इस प्रकार षट्संपत्ति साधक की आंतरिक भूमि को इस प्रकार तैयार करता है कि वह आत्मज्ञान की ओर सहज रूप से अग्रसर हो सके। ये गुण न केवल साधना की दिशा में सहायता करते हैं, बल्कि जीवन को शांत, संयमित और सत्यमय बनाते हैं। विवेक, वैराग्य, और मुमुक्षुत्व के साथ जब षट्संपत्ति जुड़ता है, तभी साधक 'साधनचतुष्टय' की पूर्णता को प्राप्त करता है, जो ब्रह्मविद्या की योग्यता का सूचक है।