"मुमुक्षुत्व या मोक्ष की तीव्र अभिलाषा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मुमुक्षुत्व या मोक्ष की तीव्र अभिलाषा अद्वैत वेदांत की साधनचतुष्टय की अंतिम और अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है। यह वह अंतःप्रेरणा है जो साधक को आत्मसाक्षात्कार की ओर निरंतर प्रेरित करती है। विवेकचूडामणि में आदिशंकराचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है, "मुमुक्षुत्वं हि मोक्षस्य कारणं मुक्ति-साधनम्।" अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति का मूल कारण मुमुक्षुत्व ही है। साधक के भीतर यदि मोक्ष की तीव्र इच्छा नहीं है, तो अन्य साधन जैसे विवेक, वैराग्य और षट्सम्पत्ति भी निष्फल हो जाते हैं। यह इच्छा केवल एक सामान्य उत्कंठा नहीं है, बल्कि एक तीव्र जलन के समान है, जैसे बालक अपनी माता के लिए रोता है या मृग मरीचिका को पाने के लिए व्याकुल रहता है। यह तीव्रता ही साधक को सांसारिक बंधनों से मुक्त होने की प्रेरणा देती है और वह अपने जीवन का उद्देश्य केवल आत्मज्ञान में केंद्रित कर लेता है।
आत्मबोध ग्रंथ में शंकराचार्य लिखते हैं कि, "मोक्षस्य न हि जानस्य कारणं बिना मुमुक्षया।" यानी मुमुक्षुत्व के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं। यह एक ऐसा आंतरिक ज्वाला है जो साधक को बाहर की असत्य और क्षणिक वस्तुओं से विमुख करके अंतः की शाश्वत सत्ता की ओर मोड़ देती है। यह भावना तब उत्पन्न होती है जब साधक जगत की अनित्यता, दुःखस्वरूपता और असारता को गहराई से अनुभव करता है। जब संसार के सभी सुख और उपलब्धियाँ अस्थायी प्रतीत होती हैं और आत्मा को शांति नहीं देतीं, तब वह मोक्ष की ओर मुड़ता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते।" अर्थात् अनेक जन्मों के बाद जब किसी में आत्मज्ञान उत्पन्न होता है, तभी वह मुझ ब्रह्म में लीन होने की इच्छा करता है। यह मुमुक्षुत्व का ही संकेत है जो जन्मों की तपस्या और अनुभूति का फल है।
दृष्टि-दृश्य-विवेक में साधक को यह बताया गया है कि दृश्य जगत सदा परिवर्तनीय और मिथ्या है, जबकि दृष्टा – चैतन्य स्वरूप आत्मा – नित्य और सत्यम है। जब यह बोध होता है कि मैं यह शरीर, मन या बुद्धि नहीं हूँ, तब स्वाभाविक रूप से आत्मा को जानने की तीव्र इच्छा जागती है। यही मुमुक्षुत्व है। यह इच्छा तब तक शुद्ध और प्रभावी नहीं होती जब तक वह किसी बाह्य फल या सुख की अपेक्षा से प्रेरित हो। जब साधक केवल मोक्ष चाहता है – न स्वर्ग, न पुण्य, न सिद्धियाँ – तभी उसकी मुमुक्षु अवस्था सच्ची मानी जाती है। विवेकचूडामणि में कहा गया है, "दुर्लभं त्रयमेवैतद् – देवानुग्रहहेतुका:। मनुष्यत्वं, मुमुक्षुत्वं, महापुरुषसंश्रयः।।" अर्थात् तीन वस्तुएँ दुर्लभ हैं – मानव जन्म, मुमुक्षुत्व और सत्संग – और ये ईश्वर की कृपा से प्राप्त होते हैं।
ब्रह्मसूत्र में भी मुमुक्षुत्व का महत्व निहित रूप से स्वीकार किया गया है। सूत्र "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" स्वयं एक मुमुक्षु की अवस्था को ही दर्शाता है। 'अथ' शब्द यहाँ उस पूर्व तैयारी को सूचित करता है जो एक साधक को मुमुक्षु बनने से पहले करनी होती है – यानी विवेक, वैराग्य और शमादि षट्सम्पत्ति का अभ्यास। 'ब्रह्मजिज्ञासा' – ब्रह्म को जानने की तीव्र जिज्ञासा – वास्तव में मुमुक्षुत्व की ही एक अभिव्यक्ति है। यह इच्छा तब उत्पन्न होती है जब साधक समझता है कि संसार में कोई वस्तु उसे पूर्ण शांति नहीं दे सकती। शास्त्र और गुरु के वचनों से उसे यह बोध होता है कि केवल आत्मसाक्षात्कार से ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति संभव है। इस तीव्र प्रेरणा से ही वह ज्ञानमार्ग की ओर अग्रसर होता है और शास्त्राध्ययन, मनन, निदिध्यासन के द्वारा ज्ञान को साकार करता है।
मुमुक्षुत्व की तीव्रता साधक की साधना की दिशा और गहराई को निर्धारित करती है। जैसे जैसे यह इच्छा तीव्र होती जाती है, वैसे वैसे साधक की रुचि संसारिक विषयों में कम होती जाती है और वह स्वयं को भीतर की ओर मोड़ता है। यह प्रक्रिया आत्म-अनुसंधान की होती है जिसमें व्यक्ति यह देखता है कि 'मैं कौन हूँ?' 'मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है?' – और उत्तर खोजने लगता है। भगवद्गीता में कहा गया है, "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।" यानी गुरु के पास जाकर श्रद्धा से प्रश्न करके, सेवा करके आत्मज्ञान प्राप्त करो। परंतु यह जिज्ञासा तभी संभव है जब भीतर मुमुक्षुत्व की ज्वाला हो। शास्त्रों में अनेक स्थानों पर यह कहा गया है कि तीव्र मुमुक्षु को ब्रह्मज्ञान शीघ्र प्राप्त होता है, जबकि सामान्य इच्छुक को समय लगता है।
मुमुक्षुत्व की परिणति आत्मसाक्षात्कार में होती है। जब साधक की समस्त ऊर्जा एक ही लक्ष्य में केंद्रित होती है – मोक्ष – तब वह अपने भीतर के गहन मौन में उतरता है, जहाँ आत्मा स्वयं को प्रकट करती है। यह कोई नया अनुभव नहीं होता, बल्कि अज्ञान के आवरण हटते हैं और सत्य का अनावरण होता है। तब साधक जानता है कि वह कभी भी बंधन में नहीं था – केवल अज्ञान के कारण ऐसा प्रतीत हो रहा था। विवेकचूडामणि में कहा गया है, "ज्ञानादेव तु कैवल्यं।" यानी केवल ज्ञान से ही मोक्ष संभव है। और इस ज्ञान की प्राप्ति मुमुक्षुत्व की अग्नि के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार मुमुक्षुत्व न केवल साधना का प्रारंभिक प्रेरक है, बल्कि अंतिम मुक्त अवस्था तक साधक की चेतना को पोषित करता है। यही वेदांत का सार है – तीव्र इच्छा से जन्मा आत्मज्ञान, जो अंततः पूर्ण शांति और परम आनंद की ओर ले जाता है।