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मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

“श्रवण: वेदांत में श्रवण का महत्त्व”



“श्रवण: वेदांत में श्रवण का महत्त्व” 

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

वेदांत के अनुसार आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया तीन मुख्य चरणों में होती है—श्रवण, मनन और निदिध्यासन। इन तीनों में प्रथम और अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है श्रवण। श्रवण का अर्थ है वेदांत के महावाक्यों और गुरु के उपदेशों को एकाग्र मन और श्रद्धा के साथ सुनना। यह श्रवण सामान्य सुनने जैसा नहीं होता; यह ऐसा सुनना है जिसमें शिष्य अपनी समस्त बुद्धि, भावना और चित्त को समर्पित करके ब्रह्मविद्या को आत्मसात करता है। उपनिषदों में कहा गया है—"श्रवणेनैव तु विज्ञानं यथार्थं जायते नृणाम्", अर्थात केवल श्रवण से ही मनुष्यों में ब्रह्मज्ञान की उत्पत्ति होती है। जब शिष्य बार-बार गुरु से वेदांत श्रवण करता है, तो वह अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्त होकर आत्मा के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है।

‘विवेकचूडामणि’ में शंकराचार्य कहते हैं—"शास्त्रं गुरुवाक्यं सत्त्वबुद्ध्या अवधार्य यः। आत्मन्येव सदा स्थास्यन् आत्मदर्शनलम्पटः॥", अर्थात जो व्यक्ति शास्त्र और गुरु के वचनों को सत्त्वगुणयुक्त बुद्धि से दृढ़ता से ग्रहण करता है और आत्मा में ही स्थित रहता है, वही आत्मदर्शन की तीव्र इच्छा से युक्त होता है। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि केवल श्रवण करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे अंतःकरण से आत्मसात करना आवश्यक है। शंकराचार्य ने यह भी कहा कि—"वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तः", यानी जो वेदांत वाक्यों में सदा रत रहते हैं, वही आत्मज्ञानी बनते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि बारंबार वेदांत का श्रवण करना, उसे गहनता से ग्रहण करना, ज्ञान की पहली और अनिवार्य सीढ़ी है।

‘आत्मबोध’ में श्रवण की आवश्यकता को बताते हुए कहा गया हैं—“अविद्यास्तिमिरान्धस्य ज्ञानालोकप्रकाशकः। आत्मबोधो विधीयते सद्धिरात्मार्थदर्शनाय॥”, अर्थात अज्ञान रूपी अंधकार से अंधे हुए व्यक्ति के लिए आत्मज्ञान ही प्रकाशक है, और उसका दर्शन ही आत्मा के तात्त्विक स्वरूप को प्रकट करता है। यह ज्ञान तभी संभव है जब सत्संग और शास्त्रों का श्रवण हो। श्रवण ही वह माध्यम है जो जीव को शास्त्रों के रहस्यमयी सत्य की ओर ले जाता है। जब श्रोता वेदांत के उपदेशों को सुनता है, तो धीरे-धीरे उसकी वृत्तियाँ शुद्ध होती हैं और सत्य के प्रति उसकी बुद्धि सजग हो जाती है। यह सजगता ही आत्मबोध को जन्म देती है।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—"तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥" (गीता 4.34), अर्थात उस ज्ञान को जानने के लिए तुम विनयपूर्वक गुरु के पास जाओ, उन्हें प्रश्न पूछो, और सेवा करो। वे तत्वदर्शी ज्ञानीजन तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। इस श्लोक में भी श्रवण की भूमिका स्पष्ट है। ज्ञान का उपदेश तभी प्राप्त होता है जब श्रद्धा और विनय के साथ गुरु के वचनों को सुना जाए। यह श्रवण न केवल जानकारी देता है, बल्कि साधक की चेतना को जाग्रत करता है और आत्मा के साथ उसकी तादात्म्यता को पुष्ट करता है। बिना इस विनयपूर्ण श्रवण के आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं।

‘ब्रह्मसूत्र’ में भी आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रवण की महत्ता को स्वीकारा गया है। प्रथम सूत्र है—"अथातो ब्रह्मजिज्ञासा॥", अर्थात अब ब्रह्म की जिज्ञासा की जाए। यह जिज्ञासा तभी उठती है जब व्यक्ति को संसार की असारता का बोध हो जाता है और वह शास्त्रों के वचनों की ओर आकृष्ट होता है। ‘श्रवणादीनामनन्तर्यं स्मृतौ’—इस प्रकार शंकराचार्य ने भी श्रवण को ही आत्मज्ञान की शुरुआत बताया है। जब व्यक्ति बार-बार श्रवण करता है, तब उसका चित्त स्थिर होता है और वह द्वैत-बोध से परे जाकर अद्वैत की अनुभूति में स्थित होने लगता है। यह श्रवण ब्रह्मज्ञान की जड़ है, जिससे आत्मा की महिमा का प्रकटीकरण होता है।

‘दृग्दृश्यविवेक’ में श्रवण के माध्यम से दृग (द्रष्टा) और दृश्य (दृश्य वस्तुएँ) के भेद को जानने की शिक्षा दी गई है। श्लोक है—"रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद् दृश्यं दृग् एव मनः। दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते॥", अर्थात रूप दृश्य है, नेत्र द्रष्टा है; नेत्र दृश्य है, मन द्रष्टा है; मन के विचार दृश्य हैं, और आत्मा साक्षी है जो कभी दृश्य नहीं होती। यह भेदबुद्धि केवल तभी विकसित होती है जब व्यक्ति बारंबार शास्त्र और गुरु के उपदेशों का श्रवण करता है। जब वह जानता है कि जो कुछ देखा जा रहा है वह बदलनेवाला है, और देखनेवाला कभी नहीं बदलता, तब ही आत्मा की पहचान संभव होती है। और यह ज्ञान, यह विवेक, केवल श्रवण से ही आरंभ होता है।

इस प्रकार, वेदांत के अनुसार श्रवण आत्मज्ञान की प्रथम और अत्यंत आवश्यक साधना है। यह श्रवण शास्त्र और गुरु के वचनों को श्रद्धा, विनय और तन्मयता से ग्रहण करने की प्रक्रिया है। उपनिषदों ने श्रवण को ब्रह्मविद्या की कुंजी बताया है; विवेकचूडामणि और आत्मबोध ने इसे आत्मदर्शन की पूर्वपीठिका कहा है; गीता और ब्रह्मसूत्र ने इसे ज्ञान प्राप्ति का प्रवेशद्वार माना है, और दृग्दृश्यविवेक ने इसे दृष्टा-दृश्य विवेक का आधार। जो साधक निरंतर वेदांत वाक्यों का श्रवण करता है, उसका मन शुद्ध होता है, अज्ञान का अंधकार मिटता है और आत्मा की ज्योति प्रकट होती है। इस श्रवण के बिना वेदांत के रहस्य केवल शाब्दिक रह जाते हैं; श्रवण के साथ वे आत्मिक अनुभूति बन जाते हैं। यही श्रवण की महानता है, यही उसकी शक्ति है, और यही आत्मज्ञान का प्रथम चरण है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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