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बुधवार, 23 अप्रैल 2025

“मनन: वेदांत में मनन का महत्व”

 

“मनन: वेदांत में मनन का महत्व” 


ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ


श्रवण के पश्चात् जो अगला चरण आता है वह है मनन। यह वह अवस्था है जहाँ शिष्य ने जो भी वेदांत वाक्य सुने हैं, जो शास्त्र और गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है, उसका तर्कसंगत विचार करता है और सभी शंकाओं का समाधान करता है। उपनिषदों में कहा गया है—"आत्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" (बृहदारण्यक उपनिषद 2.4.5), अर्थात आत्मा को देखना चाहिए, उसके विषय में श्रवण करना चाहिए, मनन करना चाहिए और निदिध्यासन करना चाहिए। यहाँ ‘मन्तव्यः’ शब्द मनन का संकेत देता है, जो श्रवण के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को तर्क और विवेक द्वारा पुष्ट करता है। केवल सुन लेने से ज्ञान पक्का नहीं होता, जब तक कि उसका बारंबार चिंतन न किया जाए और उसे तर्क द्वारा शुद्ध न किया जाए।


‘विवेकचूडामणि’ में शंकराचार्य कहते हैं—"श्रवणमनननिदिध्यासनानि मोक्षसाधनानि चतुर्विधानि।" अर्थात श्रवण, मनन, और निदिध्यासन – ये सभी मोक्ष के साधन हैं। मनन का कार्य है, श्रवण के माध्यम से प्राप्त अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को बुद्धि द्वारा दृढ़ता से स्थापित करना। जब मनुष्य में कोई शंका उत्पन्न होती है, तो मनन उसे दूर करने का साधन बनता है। शंकराचार्य आगे कहते हैं—"मननं नाम तद्वाक्यार्थ-निश्चितिः युक्त्या सह।" अर्थात मनन वह है जिसमें वेदांत वाक्य के अर्थ का युक्ति सहित निर्णय किया जाता है। इसका उद्देश्य केवल ज्ञान लेना नहीं, बल्कि उस ज्ञान को हृदय में स्थिर करना है।


‘आत्मबोध’ में भी मनन के महत्व को दर्शाया गया है।—"अविचारकृतो बन्धः विचारो मोक्षसाधनम्।" अर्थात बिना विचार के बंधन उत्पन्न होता है, और विचार यानी मनन ही मोक्ष का साधन है। यहाँ ‘विचार’ शब्द से तात्पर्य है तर्कयुक्त मनन। यदि श्रवण के बाद मनन नहीं होता, तो ज्ञान मात्र शब्दों तक सीमित रह जाता है, और शंका तथा भ्रम का निवारण नहीं होता। मनन ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा शिष्य अपनी धारणा को दृढ़ बनाता है और आत्मा के सत्य स्वरूप को युक्तिपूर्वक स्वीकार करता है। बिना मनन के ज्ञान सतही बना रहता है, जो किसी भी विपरीत परिस्थिति में डगमगा सकता है।


‘भगवद्गीता’ में श्रीकृष्ण अर्जुन को बार-बार मनन करने के लिए प्रेरित करते हैं। एक श्लोक में कहा गया है—"तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥" (गीता 5.17), अर्थात जिनकी बुद्धि उस परमात्मा में स्थित है, जो उसमें ही लगे हैं, उसी को अपना लक्ष्य मानते हैं, वे ज्ञान द्वारा पापों से रहित होकर पुनर्जन्म से मुक्त हो जाते हैं। यहाँ ‘तद्बुद्धयः’ का अर्थ है—जो अपने विचार और मनन से परमात्मा में स्थित हो गए हैं। यह स्थिति तभी आती है जब ज्ञान को बारंबार विचार और तर्क द्वारा पुष्ट किया गया हो। गीता का यह सन्देश यही बताता है कि मनन ही आत्मबुद्धि को स्थिर करता है।


‘ब्रह्मसूत्र’ में भी मनन के लिए गहराई से संकेत किया गया है। सूत्र है—"तत्त्वसंनिधनात्, उपदेशाद्वा॥" (ब्रह्मसूत्र 1.3.30), अर्थात तत्त्व की सन्निधि में उपदेश सुनकर, तर्क और विचार के माध्यम से उसका निर्णय करना चाहिए। शंकराचार्य अपने भाष्य में स्पष्ट करते हैं कि केवल उपदेश पर्याप्त नहीं, जब तक कि साधक उसमें सम्यक् रूप से मनन न करे। वेदांत के अनेक वाक्य जटिल प्रतीत होते हैं, और यदि उन पर गहन मनन न किया जाए, तो साधक भ्रमित हो सकता है। इसलिए ब्रह्मसूत्र के आधार पर मनन को वेदांत का आवश्यक अंग माना गया है, जो आत्मसंदेह को नष्ट करता है।


‘दृग्दृश्यविवेक’ में भी विचार का विशेष स्थान है। वहाँ कहा गया है—"दृश्यानां दृश्यत्वं नित्यं दृष्टुत्वं न कदाचन।" अर्थात दृश्य वस्तुएँ सदा बदलती हैं, लेकिन दृष्टा यानी आत्मा कभी नहीं बदलती। इस भेद को समझने के लिए केवल श्रवण पर्याप्त नहीं; बार-बार चिंतन करना पड़ता है कि कौन बदलता है और कौन नहीं। जब साधक यह भेद बुद्धि से समझ लेता है और बारंबार उस पर विचार करता है, तब ही आत्मा की साक्षात् अनुभूति की ओर बढ़ता है। यह भेदबुद्धि—जिसे मनन द्वारा पुष्ट किया जाता है—ही आत्मविकास की नींव है।


अतः मनन वेदांत साधना का अनिवार्य भाग है, जो श्रवण के बाद आत्मज्ञान को सुदृढ़ करता है। उपनिषदों ने इसे आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया में अनिवार्य बताया, विवेकचूडामणि ने इसे ज्ञान को पुष्ट करने का साधन कहा, आत्मबोध ने इसे बंधन की काट बताया, गीता ने इसे आत्मबुद्धि की स्थिरता का मूलभूत कारण माना, ब्रह्मसूत्रों ने इसे तत्त्वज्ञान का निर्णायक मार्ग बताया, और दृग्दृश्यविवेक ने इसे विवेक की धार को तीव्र करनेवाला उपक्रम कहा। यदि साधक सच्चे अर्थों में आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहता है, तो उसे न केवल श्रवण करना चाहिए, बल्कि उस सुने हुए ज्ञान को बारंबार मनन के द्वारा चित्त में बैठाना चाहिए। यही मनन आत्मज्ञान को गहराई देता है, उसे अनुभूति की ओर ले जाता है, और अंततः मोक्ष का द्वार खोलता है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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