"निदिध्यासन :- वेदांत में निदिध्यासन का महत्व"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
श्रवण और मनन के पश्चात जो तीसरा और अंतिम साधन बताया गया है वह है 'निदिध्यासन' — अर्थात निरंतर ध्यान द्वारा आत्मस्वरूप में स्थित होना। उपनिषदों में बारंबार इस अभ्यास का उल्लेख आता है। बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है: "श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" — "उस आत्मा को सुनना चाहिए, विचार करना चाहिए, और उसका ध्यान करना चाहिए।" यह क्रमबद्ध साधना है जिसमें निदिध्यासन अंतिम और अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है। यहाँ 'निदिध्यासन' का अर्थ केवल ध्यान लगाने का अभ्यास नहीं, बल्कि सतत आत्मचिंतन द्वारा 'अहं ब्रह्मास्मि' की अनुभूति में स्थित रहना है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक के भीतर कोई संशय शेष नहीं रहता और आत्मज्ञान उसका स्वाभाविक अनुभव बन जाता है।
विवेकचूडामणि में इस पर जोर दे कर कहा गया है कि: "शमादिषट्कसंपन्नो मुमुक्षुरेव हि ब्रह्मवित्। ज्ञानस्य फलमुत्कृष्टं तच्च निदिध्यासितं पुनः॥" अर्थात जो शमादि षट्संपत्ति से सम्पन्न और मुक्तिच्छु है, वही ब्रह्मज्ञ बनता है। और वह ज्ञान तब फलित होता है जब वह निदिध्यासन द्वारा दृढ़ हो जाता है। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि केवल शास्त्रज्ञान और तर्क से प्राप्त ज्ञान पर्याप्त नहीं, बल्कि उसे चित्त में स्थिर करने के लिए निरंतर ध्यान की आवश्यकता है। शंकराचार्य निदिध्यासन को ‘ज्ञाननिष्ठा’ कहते हैं — जहाँ विचार का स्थान अनुभव लेता है। यह अनुभव न तो कल्पना है, न मानसिक अभ्यास, बल्कि चैतन्यस्वरूप में लीन हो जाना है।
आत्मबोध में शंकराचार्य कहते हैं: "ज्ञाते वस्तुनि युक्त्या च चित्तं तत्र प्रवर्तते। तदा निदिध्यासनं प्रोक्तं न तु ध्यानं विचारतः॥" अर्थात जब युक्तिपूर्वक ज्ञात वस्तु (अर्थात आत्मा) में चित्त प्रवृत्त होता है, तब वह निदिध्यासन कहलाता है — मात्र ध्यान नहीं। यहाँ 'विचारतः' शब्द ध्यान और निदिध्यासन के भेद को स्पष्ट करता है। ध्यान में कोई वस्तु लक्ष्य होती है, पर निदिध्यासन में आत्मस्वरूप में ही स्थिति होती है। यह आत्मा को 'देखने' का प्रयास नहीं, बल्कि 'स्वयं आत्मा में टिके रहने' का अभ्यास है। इस अवस्था में साधक संसार की किसी भी द्वैत-बुद्धि से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि वह जान चुका होता है कि आत्मा एकमेव, अद्वितीय, और सर्वत्र व्याप्त है।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं: "युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी निवृत्तिमाश्रितः। आत्मदर्शनयात्रा हि योगेनैव समाचरेत्॥" (गीता 6.15) — इस प्रकार अपने आत्मा में सदा लगे रहकर योगी शांति को प्राप्त करता है। यहाँ 'युञ्जन्' शब्द का तात्पर्य है — निरंतर आत्मा में जुड़ाव। यही निदिध्यासन है, जहाँ साधक इंद्रियों से हटकर अंतर्मुख हो जाता है और 'अहं ब्रह्मास्मि' के ज्ञान में लीन रहता है। गीता में यह भी कहा गया है: "तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।" — उस अवस्था को जानो जो दुःख के संयोग से सर्वथा विरक्त है, वही योग है। जब साधक निदिध्यासन द्वारा इस योग में स्थित होता है, तब संसार का कोई भी आकर्षण उसे विचलित नहीं कर सकता।
ब्रह्मसूत्र में भी स्पष्ट किया है कि श्रवण और मनन के बाद ज्ञान को दृढ़ करने हेतु ‘अभ्यास’ आवश्यक है। सूत्र कहता है — "आवृत्त्यनुशन्धानाभ्याम्॥" (ब्रह्मसूत्र 4.1.1) — आत्मा की स्मृति और अन्वेषण बारंबार किया जाए। यहाँ ‘आवृत्ति’ का अर्थ है — निरंतर आत्मस्वरूप का ध्यान, जो कि निदिध्यासन का ही स्वरूप है। शंकराचार्य इस पर भाष्य करते हुए कहते हैं कि यह अभ्यास तब तक करना चाहिए जब तक कि आत्मबुद्धि दृढ़ न हो जाए और अहंकार तथा शरीरबुद्धि का पूर्णतः लय न हो जाए। यह अभ्यास आत्मा को विषय न बनाकर, आत्मस्वरूप में स्थिति की ओर ले जाता है।
दृग्दृश्यविवेक में कहा गया है: "चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये। वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मकोटिभिः॥" — चित्त की शुद्धि के लिए कर्म आवश्यक है, पर आत्मा की उपलब्धि केवल विचार और ध्यान से होती है, न कि करोड़ों कर्मों से। यह विचार जब पूरी तरह पक्का हो जाता है, तब साधक निदिध्यासन की ओर प्रवृत्त होता है। दृग्दृश्यविवेक का सार यही है कि 'दृश्य' सब मिथ्या हैं, और 'दृग्' यानी आत्मा ही सत्य है। जब साधक इस भाव में टिकता है कि "मैं देख रहा हूँ, पर दृश्य में रमा नहीं हूँ", तब वह निदिध्यासन में प्रविष्ट होता है। यही 'मैं देख रहा हूँ लेकिन दृश्य में नहीं फंस रहा' — यह सतत जागरूकता ही ध्यान का सर्वोच्च स्वरूप है।
निदिध्यासन वेदांत साधना का वह मुकाम है जहाँ शिष्य श्रवण और मनन के पश्चात ‘ज्ञानी’ से ‘स्थितप्रज्ञ’ की ओर अग्रसर होता है। उपनिषद इसका निर्देश ‘नित्य आत्मचिंतन’ के रूप में करते हैं। विवेकचूडामणि इसे मोक्ष प्राप्ति का द्वार कहता है। आत्मबोध में यह 'चित्त की दृढ़ता' के रूप में प्रकट होता है। गीता में यह 'अखंड योग' है, ब्रह्मसूत्रों में यह 'स्मृति और साधना की निरंतरता' है, और दृग्दृश्यविवेक में यह 'दृग् में ही स्थित होने की अवस्था' है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा का बोध केवल ज्ञान नहीं रह जाता, बल्कि अनुभव बन जाता है — एक सतत जगा हुआ अनुभव, जो साधक को जीवन में पूर्ण रूप से मुक्त करता है। यही निदिध्यासन है — परम सत्य में स्थित होने की जीवंत साधना।