“नेति-नेति की आत्मचिन्तन में भूमिका”
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वेदांत दर्शन में आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया में ‘नेति-नेति’ का प्रयोग अत्यंत गूढ़ और प्रभावशाली माना गया है। यह वाक्यांश मूलतः बृहदारण्यक उपनिषद (2.3.6) से आता है, जहाँ कहा गया है: "नेति नेति" — अर्थात ‘यह नहीं है, यह भी नहीं है’। यह निषेधात्मक पद्धति आत्मा के निरूपण के लिए प्रयोग की जाती है, क्योंकि आत्मा शब्दों, इंद्रियों और विचारों के परे है। जब कोई साधक आत्मा को जानना चाहता है, तब उसे पहले यह जानना पड़ता है कि आत्मा क्या नहीं है। शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार — ये सभी दृश्य और परिवर्तनशील हैं, अतः आत्मा नहीं हो सकते। जब इन सबका निषेध कर दिया जाता है, तब शुद्ध चैतन्य, निराकार, अविकारी आत्मा शेष रह जाती है। यह ही ‘नेति-नेति’ का मूल तात्पर्य है — आत्मा को किसी सकारात्मक संज्ञा से नहीं, बल्कि निराकरण से जानना।
विवेकचूडामणि में आत्मविवेक की प्रक्रिया को ‘नेति-नेति’ की पद्धति को स्पष्ट करते हुए कहा गया हैं: "नेति नेत्यात्मकं सर्वं जगदेतन्निरूप्य च। पश्यत्यात्मानमात्मस्थं केवले ब्रह्मरूपिणम्॥" — अर्थात "नेति-नेति द्वारा सम्पूर्ण जगत का निषेध करके, आत्मा को आत्मा में ही स्थित, केवल ब्रह्मस्वरूप के रूप में देखता है।" यह श्लोक बताता है कि जब साधक इस समस्त दृश्य जगत को आत्मा से भिन्न मानता है, तभी आत्मा के सच्चे स्वरूप का साक्षात्कार संभव होता है। यह निषेध केवल तर्क का अभ्यास नहीं है, बल्कि अनुभव का विषय है। जैसे कोई व्यक्ति बार-बार कूड़ा हटा कर अंततः स्वर्ण तक पहुँचता है, वैसे ही ‘नेति-नेति’ द्वारा साधक अपने भीतर छिपे आत्मस्वरूप तक पहुँचता है।
आत्मबोध में शंकराचार्य कहते हैं: "अनात्मचित्त्यत्यागेऽन्यत्वाभावेन चात्मनः। आत्मदर्शनमभ्यस्तं नेति नेतिति वाक्यतः॥" — अर्थात "अनात्म वस्तुओं का त्याग और आत्मा से भिन्न का अभाव ही आत्मदर्शन है, और यह 'नेति-नेति' वाक्य द्वारा ही सिद्ध होता है।" यहाँ 'त्याग' का अर्थ यह नहीं कि संसार को त्यागकर कहीं भाग जाना है, बल्कि मानसिक स्तर पर उसे आत्मा से भिन्न समझना है। यह अभ्यास जब बारंबार होता है, तब साधक स्वयं को शरीर, मन, और इंद्रियों से परे अनुभव करने लगता है। आत्मा का साक्षात्कार तभी संभव है जब उसकी अनुभूति से पहले सभी आभासी उपाधियाँ हटाई जाएँ, और यह कार्य 'नेति-नेति' से ही होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: "नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।" (गीता 7.25) — "मैं सबके लिए प्रकट नहीं हूँ, क्योंकि मैं योगमाया से आवृत हूँ।" इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्म या आत्मा सामान्य चित्त के लिए अदृश्य है, क्योंकि वह इंद्रियगोचर नहीं है। गीता बार-बार कहती है कि जो देखा जा सकता है वह नश्वर है — "अनित्यमसुखं लोकं", और आत्मा अनित्य नहीं है। अतः आत्मा को जानने के लिए साधक को वह दृष्टि चाहिए जो दृश्य से परे देख सके। यही दृष्टि ‘नेति-नेति’ से विकसित होती है — जब साधक हर देखे गए, अनुभव किए गए वस्तु को अस्वीकार करता है, और अंततः उस ‘दृग्’ को जानता है जो सबका साक्षी है।
ब्रह्मसूत्र में भी आत्मा की निरूपण प्रक्रिया के समय ‘नेति-नेति’ का समर्थन मिलता है। सूत्र कहता है — "नेति नेति आचर्यतेः" (ब्रह्मसूत्र 3.2.22)। शंकराचार्य इस पर स्पष्ट करते हैं कि आत्मा का स्वरूप इतना सूक्ष्म है कि उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसलिए उपनिषदों ने उसका निरूपण 'नेति-नेति' द्वारा किया है — अर्थात वह न यह है, न वह है। इस निषेध से यह नहीं दर्शाया जाता कि आत्मा नहीं है, बल्कि यह कि वह इंद्रियगम्य, शब्दगम्य, और मनगम्य नहीं है। उसका ज्ञान केवल तब संभव है जब सभी दृश्य और अनुभव वस्तुओं का त्याग कर दिया जाए, और साधक स्वयं को केवल 'साक्षी' रूप में अनुभव करे।
दृग्दृश्यविवेक में भी यह पद्धति अत्यंत प्रभावशाली रूप से व्यक्त की गई है। प्रारंभ में ही कहा गया है: "रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृष्टुमनसम्। दृष्टे दृष्टे त्वविज्ञेयं दृग्दृश्या विविचार्यते॥" — अर्थात "रूप दृश्य है, नेत्र द्रष्टा है; नेत्र दृश्य है, मन द्रष्टा है; परंतु वह जो सबको देखता है, वह अंत में द्रष्टा है और उसे देखा नहीं जा सकता।" यह विश्लेषणात्मक प्रक्रिया स्वयं ‘नेति-नेति’ का अभ्यास है — जहां प्रत्येक स्तर पर हम यह जानते जाते हैं कि ‘यह नहीं’, ‘यह भी नहीं’, जब तक कि अंतिम 'दृग्' न रह जाए, जो आत्मा है। यही दृष्टि आत्मसाक्षात्कार की नींव है। जब साधक इस ‘अदृश्य द्रष्टा’ में स्थित हो जाता है, तब वह वास्तव में अपने स्वरूप को जानता है।
अतः नेति-नेति केवल एक नकारात्मक वाक्य नहीं है, यह आत्मानुभूति की विधि है। यह अभ्यास किसी विचारधारा का हिस्सा नहीं, बल्कि एक गहन ध्यान की प्रक्रिया है, जिसमें साधक सभी अविद्या की परतों को हटाकर उस चैतन्य स्वरूप तक पहुँचता है, जो साक्षी है, अखंड है, और अपने आप में पूर्ण है। उपनिषदों में इसका स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है, विवेकचूडामणि इसे आत्मसाक्षात्कार का प्रमुख साधन मानता है, आत्मबोध इसे ध्यान का उपविन्यास मानता है, गीता इसे अदृश्य ब्रह्म तक पहुँचने का उपाय कहती है, ब्रह्मसूत्र इसे अपरिभाष्य ब्रह्म के साक्षात्कार की विधि कहता है, और दृग्दृश्यविवेक इसे 'दृग् में स्थित रहने की नित्य साधना' के रूप में प्रस्तुत करता है। यही ‘नेति-नेति’ आत्मचिन्तन की वह ज्योति है जो साधक को अंततः अंधकार से प्रकाश, असत्य से सत्य और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाती है।