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शनिवार, 26 अप्रैल 2025

“अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव: अद्वैत की अनुभूति”

अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव: अद्वैत की अनुभूति” 


ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ


वेदांत का मूल उद्देश्य जीव को उसके वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कराना है, और इसी अनुभव को 'अहं ब्रह्मास्मि' — मैं ही ब्रह्म हूँ — कहा गया है। यह वाक्य बृहदारण्यक उपनिषद (1.4.10) का प्रसिद्ध महावाक्य है, जो आत्मा और ब्रह्म के अभिन्नत्व की घोषणा करता है। यह अनुभव केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभूति है जो आत्मा और ब्रह्म के बीच की seeming द्वैत को समाप्त कर देता है। उपनिषद में कहा गया है — "अहं ब्रह्मास्मि" — इसका तात्पर्य है कि वह आत्मा जिसे हम 'मैं' के रूप में जानते हैं, वही निराकार, सर्वव्यापक ब्रह्म है। जब साधक इस सत्य को श्रोतव्यम् (श्रवण), मन्तव्यम् (मनन) और निदिध्यासनम् (निदिध्यासन) के द्वारा जान लेता है, तब वह अपने भीतर ब्रह्म की पूर्णता को अनुभव करता है।


विवेकचूडामणि में शंकराचार्य इस बोध को स्पष्ट करते हैं: "चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्" — "मैं चैतन्य और आनन्दस्वरूप शिव हूँ, शिव हूँ।" यह आत्मानुभूति तब होती है जब साधक यह जान लेता है कि वह न तो शरीर है, न इन्द्रियाँ, न मन, न बुद्धि, न अहंकार, बल्कि वह शुद्ध चैतन्य है, जो सर्वत्र व्यापी है। आत्मा के इस स्वरूप का अनुभव होते ही सभी द्वैत का अंत हो जाता है। विवेकचूडामणि कहता है — "त्वं तस्यैव हि नित्यस्य निर्विकारस्य चेतनः।" — "तू उसी शाश्वत, विकाररहित चेतना का ही रूप है।" यह ज्ञान केवल पढ़ने-सुनने से नहीं होता, अपितु गहन अभ्यास, वैराग्य और साधना से अंतःकरण शुद्ध होता है और आत्मा की यह अनुभूति होती है।


आत्मबोध में आत्मा के ब्रह्मरूप का सुंदर वर्णन है — "आत्मा चिदाकाशवदेकरूपः नित्यः शुद्धो निर्विकल्पो निरञ्जनः।" — "आत्मा चैतन्य के आकाश की भाँति एकरस, नित्य, शुद्ध, विकल्परहित और निरञ्जन है।" जब साधक अपने को शरीर, मन, अहंकार से भिन्न जानकर आत्मा में स्थित होता है, तब उसे ज्ञात होता है कि वह स्वयं ब्रह्म है। यह ज्ञान शुद्धि, विवेक और तटस्थ मन से उत्पन्न होता है। आत्मबोध में यह भी कहा गया है — "यदा बुद्धिः परं विन्देत तदा ब्रह्माहमित्यपि।" — "जब बुद्धि परब्रह्म को जान लेती है, तभी वह 'मैं ब्रह्म हूँ' का अनुभव कर सकती है।" यह बोध क्रियात्मक नहीं, अपितु अनुभवात्मक है — जहाँ साधक अपने अस्तित्व को संपूर्ण जगत के साथ एकाकार रूप में अनुभव करता है।


श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण आत्मा और ब्रह्म के एकत्व को बार-बार प्रतिपादित करते हैं। गीता (6.29) में कहा गया है — "सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥" — "योगयुक्त आत्मा अपने को सभी प्राणियों में और सभी प्राणियों को अपने में देखता है।" यह ही ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अनुभूति है — जहाँ साधक के लिए 'मैं' और 'तुम' का भेद मिट जाता है, और केवल एक चैतन्य सत्ता शेष रह जाती है। इसी भाव को गीता (4.24) में कहा गया है — "ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।" — "आहुति ब्रह्म है, देने वाला ब्रह्म है, अग्नि ब्रह्म है, और आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्म है।" यहाँ संपूर्ण अनुभव का केंद्र ब्रह्म बन जाता है — अहंकार नहीं।


ब्रह्मसूत्र में आत्मा और ब्रह्म की एकता का गहन तात्त्विक विश्लेषण मिलता है। "तत् त्वम् असीति उपदेशात्।" (ब्र.सू. 1.1.2) — "वह तू है" — इस उपदेश से आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता प्रमाणित होती है। शंकराचार्य इस पर अपनी भाष्य में कहते हैं कि आत्मा कोई पृथक सत्ता नहीं है, वह ब्रह्म का ही प्रतिबिंब है जो अविद्या के कारण सीमित प्रतीत होता है। जब यह अविद्या मिट जाती है, तब जीव ब्रह्मस्वरूप को अनुभव करता है और कहता है — "अहं ब्रह्मास्मि"। यह अनुभव केवल तर्क या स्मृति से नहीं, अपितु ज्ञानानुभूति से होता है। ब्रह्मसूत्र इस एकता की पुष्टि करता है और कहता है कि जो भी ज्ञानी इस सत्य को समझ लेता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।


दृग्दृश्यविवेक में आत्मा और दृश्यों के बीच का भेद करके अन्ततः आत्मा को ही ब्रह्म रूप में अनुभव कराया जाता है। ग्रंथ में कहा गया है — "दृग् एव न तु दृश्यत्वं दृश्यत्वं न पुनः दृगः।" — "द्रष्टा कभी दृश्य नहीं हो सकता और दृश्य कभी द्रष्टा नहीं हो सकता।" जब साधक सब दृश्यों से अलग हो स्वयं को केवल 'दृग्' — चैतन्य साक्षी — रूप में जान लेता है, तब वह अपने अनुभव में यह सत्य पा जाता है कि "मैं वह शुद्ध चैतन्य हूँ जो साक्षी है, और वही ब्रह्म है।" यही ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की सीधी अनुभूति है — जहाँ साधक अनुभव करता है कि वह जो कुछ देख रहा है, जान रहा है, अनुभव कर रहा है — सब उसी चैतन्य ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, और उसमें स्वयं भी पूर्ण रूप से लीन है।


इस प्रकार, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कोई केवल वैदिक वाक्य नहीं, बल्कि यह आत्मा की परम अनुभूति है, जो श्रवण, मनन, और निदिध्यासन से जाग्रत होती है। उपनिषद इसका प्रतिपादन करते हैं, विवेकचूडामणि इसका मार्ग बताता है, आत्मबोध इसका ध्यान सिखाता है, गीता इसका योग दिखाती है, ब्रह्मसूत्र इसका तात्त्विक आधार देता है, और दृग्दृश्यविवेक इसका विवेकपूर्ण विश्लेषण करता है। जब साधक इन सभी ग्रंथों के प्रकाश में आत्मा को अनुभव करता है, तब वह संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एकत्व को जानता है — यही है अद्वैत, यही है ब्रह्मानुभूति, और यही है वास्तविक मुक्ति।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 


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