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सोमवार, 26 मई 2025

मंगलाचरण एवं ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व (विवेक चूड़ामणि श्लोक 1 एवं 2)


मंगलाचरण एवं ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व (विवेक चूड़ामणि श्लोक 1 एवं 2)

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

मंगलाचरण का विस्तार:

श्लोक:
"तमगोचरं सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥"

यह मंगलाचरण आदि शंकराचार्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ विवेकचूडामणि का प्रथम श्लोक है, जो उन्होंने अपने गुरु भगवान गोविन्दपाद को समर्पित किया है। इस श्लोक के माध्यम से वे केवल अपने गुरु को प्रणाम नहीं करते, बल्कि उस परम सत्य के स्वरूप का भी वर्णन करते हैं, जिसे वेदांत शास्त्रों के मर्म के रूप में जाना जाता है।

"तमगोचरम्" — यह शब्द दर्शाता है कि वह परमात्मा या गुरु सामान्य ज्ञानेंद्रियों द्वारा जानने योग्य नहीं हैं। "तम" का अर्थ है अंधकार या अज्ञान, और "गोचर" का अर्थ है जो ज्ञेय हो। अर्थात, वह परम तत्व ऐसा है जिसे इंद्रियों, मन या बुद्धि के माध्यम से जाना नहीं जा सकता। वह हमारे लौकिक अनुभवों की सीमा से परे है। इस संसार में जो कुछ भी हम देखते, सुनते, छूते, सूंघते या स्वाद लेते हैं, वह सब इंद्रियगोचर है, परंतु परमात्मा उन सबसे परे है। इसलिए वह "तमगोचर" — अज्ञेय है।

"सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरम्" — यद्यपि वह अज्ञेय है, फिर भी वह वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से जाना जा सकता है। इसका अर्थ है कि वेदांत, विशेषतः उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों द्वारा जिस परम ब्रह्म का निरूपण किया गया है, वही तत्व है जिसे गुरु के माध्यम से जाना जा सकता है। उपनिषदों में बताया गया "सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म", "नेति नेति", "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" आदि महावाक्य उसी ब्रह्म की ओर संकेत करते हैं।

"गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं" — आदि शंकराचार्य यहाँ अपने गुरु गोविन्दपाद की स्तुति करते हैं, जो उस परमानन्द स्वरूप ब्रह्म के साक्षात् प्रतिनिधि हैं। "परमानन्द" का तात्पर्य उस आनन्द से है जो आत्मा के ज्ञान में स्थायी रूप से स्थित होता है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं करता। गुरु न केवल उपदेशक हैं, बल्कि वे स्वयं उस परमानन्द के मूर्तिमान स्वरूप हैं। वे स्वयं ब्रह्मनिष्ठ होकर शिष्य को उस ज्ञान की ओर ले जाते हैं।

"प्रणतोऽस्म्यहम्" — इस वाक्य में श्रद्धा, समर्पण और विनम्रता की चरम अभिव्यक्ति है। आदि शंकराचार्य कहते हैं कि मैं उन गुरु को प्रणाम करता हूँ। यह प्रणाम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि अंतरात्मा से किया गया आत्मसमर्पण है। गुरु के प्रति यह कृतज्ञता उस परंपरा का भी स्मरण कराती है, जिसके माध्यम से ब्रह्मविद्या जीवित रही है।

निष्कर्षतः, यह श्लोक न केवल एक असाधारण स्तुति है, बल्कि यह दर्शाता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति में गुरु का क्या स्थान है। गुरु वही हैं जो शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को जानते हैं और अपने अनुभव द्वारा शिष्य को भी उसी आत्मबोध में स्थित करते हैं। ऐसे सद्गुरु को प्रणाम कर शिष्य ज्ञान-मार्ग पर आगे बढ़ता है — यह वेदांत की परंपरा की मूल भावना है।

ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व:

श्लोक:-

जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम् । आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥ २ ॥

'ब्रह्मनिष्ठा' अर्थात् ब्रह्म में दृढ़ स्थिति—आध्यात्मिक साधना की चरम अवस्था मानी जाती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक आत्मा और ब्रह्म की एकता को केवल शास्त्रों और गुरुवाक्य से नहीं, अपितु प्रत्यक्ष अनुभव से जान लेता है और उसी में स्थिर हो जाता है। ऊपर दिए गए श्लोक में शंकराचार्यजी इस ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति को अत्यंत दुर्लभ बताते हैं और इसकी ओर पहुँचने के क्रमिक सोपानों को दर्शाते हैं।

श्लोक के अनुसार सबसे पहले नरजन्म ही दुर्लभ है। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जब जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, तब वह धर्म, ज्ञान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकता है। पशु, पक्षी, कीट-पतंगों में ऐसा विवेक या साधना संभव नहीं। इसलिए मनुष्य जन्म को एक अत्यंत दुर्लभ अवसर माना गया है।

इसके पश्चात मनुष्य में भी पुंस्त्व अर्थात पुरुषत्व प्राप्त करना विशेष माना गया है, क्योंकि प्राचीन भारत में पुरुषों को वेदाध्ययन और तपस्या की अधिक सुविधा प्राप्त थी। इसके बाद आता है विप्रता अर्थात ब्राह्मणत्व। यहाँ ब्राह्मणत्व का आशय केवल जाति से नहीं, अपितु उस शुद्ध, सात्त्विक, धर्मनिष्ठ जीवनशैली से है जो वैदिक धर्म के पालन और आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त करती है।

ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाने के बाद भी वैदिक धर्म में श्रद्धा और निष्ठा होना आवश्यक है। केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि शास्त्रों का पालन, यज्ञ, तप, जप, और स्वाध्याय में तत्परता आवश्यक है। फिर भी यह सब कुछ होना भी केवल प्रारंभिक योग्यता है। अगला चरण है विद्वत्ता—शास्त्रों का गहरा ज्ञान, विवेकशील चिंतन और गुरुसेवा के द्वारा आत्मज्ञान की तैयारी।

किन्तु श्लोक यह स्पष्ट करता है कि इतना सब कुछ भी हो जाए तो भी आत्मा और अनात्मा का विवेक, स्वानुभव, ब्रह्म में स्थित रहना और मोक्ष प्राप्त करना सहज नहीं है। यह तो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैः—असंख्य जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही संभव होता है। यहाँ शंकराचार्यजी हमें यह समझाते हैं कि ब्रह्मनिष्ठा केवल बाह्य आचरण से नहीं, अपितु गहन तपस्या, पूर्ण वैराग्य, गुरु की कृपा और भगवत्कृपा से ही प्राप्त होती है।

ब्रह्मनिष्ठ साधक उस परम तत्त्व में स्थित हो जाता है जहाँ से कोई भ्रम नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। वह जानता है कि "अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ही ब्रह्म हूँ। इस स्थिति में वह न केवल संसार के दुःख-सुखों से परे हो जाता है, अपितु शुद्ध साक्षीभाव में स्थित होकर पूर्ण तृप्ति को प्राप्त करता है।

अतः यह स्पष्ट है कि ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति एक अत्यंत दुर्लभ, किन्तु सर्वोत्तम उपलब्धि है। यह मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसके लिए हमें निरंतर साधना, आत्मविचार और गुरुसेवा में लगे रहना चाहिए। यही वास्तविक मोक्ष का द्वार है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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