यह श्लोक शंकराचार्यकृत विवेकचूडामणि का 5वां एवं अत्यंत महत्वपूर्ण उपदेश है। इसमें कहा गया है कि इस संसार में उससे अधिक मूढ़ कौन हो सकता है, जो दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त करके, और उसमें भी पुरुषार्थ करने की क्षमता पाकर, अपने आत्मकल्याण में प्रशस्त करता है। यह श्लोक हमें जीवन की महत्ता और उसके वास्तविक उद्देश्य की ओर ध्यान दिलाता है।
इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति ।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ॥ ५ ॥
अर्थ:- दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ और कौन होगा ?
शास्त्रों में बताया गया है कि 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जीव को मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। यह कोई साधारण घटना नहीं है। मनुष्य-शरीर में ही विवेक, विचार और आत्मसाक्षात्कार की क्षमता है। पशु और अन्य प्राणियों के जीवन में केवल भोग, रक्षा और संतानोत्पत्ति ही मुख्य क्रियाएं होती हैं, जबकि मनुष्य में चेतना का ऐसा विकास है जो उसे आत्मज्ञान की ओर ले जा सकता है। इसीलिए यह जीवन अत्यंत दुर्लभ है और इसका महत्व असाधारण है।
मनुष्य देह प्राप्त होना एक बात है, परंतु उसमें भी ‘पौरुषम्’ अर्थात पुरुषार्थ करने की क्षमता प्राप्त होना दूसरी बात है। बहुत से लोग जीवन तो प्राप्त करते हैं पर आत्म-चिंतन, आत्म-अनुसंधान, वैराग्य और साधना के लिए जो मनोबल, प्रेरणा और दृढ़ता चाहिए, वह सभी में नहीं होती। जो इस शक्ति को प्राप्त करता है, वही वास्तव में मोक्ष के लिए उपयुक्त साधक बन सकता है। शंकराचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा अवसर मिल जाए और फिर भी कोई व्यक्ति प्रमाद करे, तो उससे बड़ा मूढ़ कोई नहीं हो सकता।
‘प्रमाद’ का अर्थ है असावधानी, आलस्य, ध्यानहीनता और असंयम। जब किसी को आत्मकल्याण के लिए आवश्यक सभी साधन प्राप्त हों और वह फिर भी सांसारिक भोगों में, तुच्छ इच्छाओं में या निरर्थक कार्यों में अपना जीवन गँवा दे, तो वह प्रमादी कहलाता है। ऐसा व्यक्ति यह नहीं समझता कि जो अवसर उसे मिला है, वह कितनों को नहीं मिलता। आत्म-साक्षात्कार ही मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य है, परंतु प्रमादी व्यक्ति उसे पहचान ही नहीं पाता।
शंकराचार्य यहाँ 'स्वार्थे' शब्द का प्रयोग करते हैं। यह शब्द सामान्य अर्थों में तो स्वार्थपरता को दर्शाता है, पर यहाँ इसका अर्थ आत्मा का अर्थ – यानी आत्मकल्याण – है। अपने वास्तविक स्व के हित के लिए किया गया पुरुषार्थ ही ‘स्वार्थ’ है। सांसारिक इच्छाएं क्षणिक हैं, पर आत्मा शाश्वत है। आत्मा की मुक्ति ही सबसे बड़ा स्वार्थ है। जो व्यक्ति इस सत्य को जानकर भी उस दिशा में प्रयास नहीं करता, वह आत्मवंचना कर रहा है।
इस प्रकार यह श्लोक न केवल जीवन के उद्देश्य को स्पष्ट करता है, बल्कि एक गहरी चेतावनी भी देता है। मानव जीवन और उसमें भी पुरुषार्थ की शक्ति – ये दोनों दुर्लभ हैं। जब इनका समन्वय हो और फिर भी हम आत्मबोध की दिशा में न बढ़ें, तो यह एक घोर प्रमाद है। इससे अधिक दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। अतः बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो इस अमूल्य जीवन को आत्मसाक्षात्कार के लिए समर्पित करे और सतत पुरुषार्थ करता रहे।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!