"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 6वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यह श्लोक विवेकचूडामणि (श्लोक ६) से लिया गया है, जो अद्वैत वेदान्त का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने एक अत्यंत गूढ़ और मूलभूत सिद्धांत को स्पष्ट किया है — कि केवल शास्त्रों का अध्ययन, यज्ञ, पूजा-पाठ, और धार्मिक अनुष्ठानों का संपादन, बिना आत्मा और ब्रह्म की एकता के बोध के, मोक्ष प्रदान नहीं कर सकते।
वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः ।
आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति-र्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि ॥ ६ ॥
अर्थ:- भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करें, देवताओं का यजन करें, नाना शुभ कर्म करें अथवा देवताओंको भजें, तथापि जब तक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं के बीत जाने पर भी [ अर्थात् सौ कल्पमें भी ] मुक्ति नहीं हो सकती।
श्लोक कहता है: “वदन्तु शास्त्राणि” — कोई व्यक्ति चाहे जितनी शास्त्रों की व्याख्या कर ले, विद्वत्ता प्राप्त कर ले, वह केवल बौद्धिक ज्ञान तक सीमित रहेगा यदि आत्मा और ब्रह्म की एकता का अनुभव नहीं हुआ हो। “यजन्तु देवान्” — कोई चाहे जितने यज्ञ कर ले, अग्निहोत्र, हवन, देवताओं की उपासना कर ले, फिर भी वह परम सत्य को नहीं प्राप्त कर सकता जब तक आत्मा-ब्रह्म का एकत्व नहीं समझा।
“कुर्वन्तु कर्माणि” — नाना शुभकर्म, दान, व्रत, तीर्थ, तपस्या आदि सत्कर्म किए जाएँ, ये सब मन की शुद्धि के साधन हो सकते हैं, परंतु अपने आप में मोक्ष के लिए पर्याप्त नहीं हैं। “भजन्तु देवताः” — देवताओं की भक्तिपूर्वक सेवा, नामस्मरण, स्तोत्रपाठ आदि भी यदि द्वैतभाव में किए जा रहे हैं, अर्थात् ईश्वर को मुझसे अलग समझकर, तो वे अंततः मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग नहीं बन सकते।
फिर श्लोक कहता है: “आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्तिः न सिध्यति” — जब तक आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता का प्रत्यक्ष बोध नहीं होता, तब तक मुक्त होना असंभव है। यह बोध केवल तर्क या श्रवण के माध्यम से नहीं होता, अपितु यह एक आंतरिक, प्रत्यक्ष अनुभव होता है — ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का स्पष्ट, निर्विकल्प ज्ञान।
शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि केवल बाह्य धार्मिकता, चाहे वह कितनी भी बड़ी हो, व्यक्ति को अंतिम लक्ष्य यानी मोक्ष तक नहीं पहुँचा सकती। जब तक मन में ‘मैं’ और ‘ईश्वर’ दो बनें रहते हैं, तब तक द्वैत बना रहता है, और द्वैत में बंधन होता है। मोक्ष का अर्थ है — इस बंधन से मुक्ति। और यह तभी संभव है जब ज्ञाता (जीव), ज्ञेय (ब्रह्म), और ज्ञान — ये तीनों एक हो जाएँ।
श्लोक के अंतिम शब्द अत्यंत प्रभावशाली हैं: “ब्रह्मशतान्तरेऽपि” — अर्थात् सौ ब्रह्माओं के अंतःकाल तक भी यदि आत्मबोध नहीं हुआ, तो मुक्ति नहीं होगी। यहाँ ‘ब्रह्मा’ एक कल्प का प्रतीक है — एक ब्रह्मा का जीवन अरबों वर्षों का होता है। अतः शंकराचार्य यह कह रहे हैं कि यदि अनेक कल्पों तक भी धार्मिक कर्म और उपासना करते रहो, तब भी जब तक आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान नहीं होगा, तब तक मुक्ति नहीं मिलेगी।
इस प्रकार यह श्लोक वेदांत के मूल सार को अत्यंत संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करता है। यह हमें यह शिक्षा देता है कि साधन और कर्म आवश्यक हैं, परंतु वे साध्य नहीं हैं। वे केवल मन को शुद्ध और योग्य बनाते हैं आत्मबोध के लिए। अंतिम लक्ष्य आत्मा और ब्रह्म के अभेद का ज्ञान है, जो कि अद्वैत वेदांत का सर्वोच्च सत्य है। यही आत्मज्ञान ही वास्तविक मुक्ति का मार्ग है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!