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बुधवार, 28 मई 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का चौथा श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का चौथा श्लोक"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

यह श्लोक विवेकचूडामणि (शंकराचार्य कृत) का चौथा श्लोक है, जो मनुष्य जन्म की महत्ता और आत्म-मुक्ति के लिए प्रयास की अनिवार्यता को स्पष्ट करता है। इसमें आदि शंकराचार्य मनुष्य को चेतावनी देते हैं कि यह जीवन अत्यंत दुर्लभ अवसर है, जिसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए।

लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं

तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् ।

यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधीः

स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसङ्ग्रहात् ॥ ४ ॥

"लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं" — इस पंक्ति में यह कहा गया है कि किसी भी प्रकार से मनुष्य जन्म प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। वेदांत में यह मत है कि अनंत योनियों के बाद जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, और यह वही अवस्था है जिसमें आत्म-साक्षात्कार की संभावना है। पशु, पक्षी या अन्य योनियों में विवेक या आध्यात्मिक प्रयास का अवसर नहीं होता, किंतु मनुष्य योनि में चेतना, बुद्धि, विवेक और आत्मनिरीक्षण की शक्ति प्राप्त होती है। अतः यह जन्म ही आत्मा को ब्रह्म से एकत्व के अनुभव की दिशा में ले जा सकता है।

"तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम्" — मनुष्य जन्म मिलने के बाद भी पुरुषत्व (शक्ति, संकल्प, धैर्य) और शास्त्रों का ज्ञान (श्रुतियों की समझ) मिलना और भी दुर्लभ है। शंकराचार्य यहाँ केवल लिंग की बात नहीं कर रहे, बल्कि उस आंतरिक साहस, दृढ़ता और आध्यात्मिक संघर्ष की क्षमता की बात कर रहे हैं जो आत्मसाधना के लिए आवश्यक है। साथ ही, वेदों और उपनिषदों का ज्ञान, गुरु-संवाद और आत्मा के स्वरूप की शास्त्रीय समझ यदि मिल जाए तो यह अत्यंत दुर्लभ संयोग है।

"यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधीः" — लेकिन यदि ऐसा दुर्लभ अवसर मिलने पर भी कोई व्यक्ति अपने आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयास न करे, तो वह मूढ़बुद्धि है। मूढ़बुद्धि वह है जिसकी चेतना बाह्य संसार में ही उलझी रहती है, जो स्थूल सुख-दुख, नाम-यश, धन-संपत्ति में ही जीवन का सार मानती है, और जो आत्मा की खोज या ब्रह्मज्ञान में कोई रुचि नहीं रखती।

"स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसङ्ग्रहात्" — ऐसा व्यक्ति आत्मघाती कहलाता है। यहाँ "आत्महा" शब्द का प्रयोग अत्यंत गंभीर है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह शरीर को मारता है, बल्कि वह अपने वास्तविक स्वरूप—सच्चिदानन्द आत्मा—को नहीं जानता और इस अज्ञानवश अपने आत्मस्वरूप को ही नष्ट करता प्रतीत होता है। "असङ्ग्रहात्" का तात्पर्य है कि वह असत्य, मिथ्या, अनात्म वस्तुओं को ही संग्रह करता है—संसार, विषय, भोग आदि में ही लिप्त रहता है और आत्मा के साथ तादात्म्य नहीं करता।

इस प्रकार यह श्लोक एक गहन आत्मचिंतन की पुकार है। यह हमें हमारे अद्वितीय मानवीय अवसर की याद दिलाता है कि हम केवल खाने, पीने, सोने और सामाजिक कर्तव्यों तक सीमित न रहें, बल्कि अपने वास्तविक स्वरूप की खोज करें। वेदांत का सार यही है—“ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।” यदि हमने इस जीवन में यह सत्य नहीं जाना, तो मानो हमने अपना सबसे कीमती अवसर खो दिया।

यह श्लोक हमें आत्मज्ञान की ओर जागृत करता है और यह स्पष्ट करता है कि केवल सांसारिक प्रगति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि मुक्ति का प्रयत्न ही सच्चा मानव धर्म है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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