"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 7वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यह श्लोक 'विवेकचूडामणि' के सातवें श्लोक का अनुवाद और व्याख्या है, जिसमें आदि शंकराचार्य स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि मुक्ति, जो कि परम लक्ष्य है, धन या कर्म के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। यहाँ श्रुति (उपनिषद्) का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत किया गया है—“अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेन,” अर्थात् "धन से अमरत्व (मोक्ष) की प्राप्ति संभव नहीं है।" यह वाक्य केवल भौतिक संपत्ति के प्रति वैराग्य की भावना को नहीं दर्शाता, बल्कि यह गहराई से यह समझाता है कि जो अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य है, वह भौतिक साधनों से परे है।
अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुतिः ।
ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यतः ॥ ७ ॥
अर्थ:-क्योंकि 'धन से अमृतत्व की आशा नहीं है' यह श्रुति 'मुक्ति का हेतु कर्म नहीं है,' यह बात स्पष्ट बतलाती है।
धन संसारिक है, उसकी सीमाएँ हैं, और वह नश्वर वस्तुओं की पूर्ति का साधन मात्र है। जब हम अमृतत्व की बात करते हैं, तो उसका तात्पर्य आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त उस स्थिति से है जिसमें जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है और आत्मा ब्रह्म में स्थित हो जाती है। ऐसी अवस्था का संबंध किसी भी प्रकार की भौतिक संपत्ति या कर्मकांड से नहीं हो सकता, क्योंकि वे सभी कारण-कार्य के क्षेत्र में आते हैं, जबकि मुक्ति अकर्म है—उसका कोई बाह्य कारण नहीं है। यह केवल ज्ञान से प्राप्त होती है, और ज्ञान का अर्थ है अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव करना, यह जानना कि 'मैं शरीर, मन, बुद्धि नहीं हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ।'
आदि शंकराचार्य कहते हैं कि यह बात श्रुति स्वयं कहती है कि अमृतत्व, अर्थात् मोक्ष, धन से नहीं प्राप्त किया जा सकता। इस वाक्य के द्वारा वह यह सिद्ध करना चाहते हैं कि केवल वैदिक कर्मकांडों के अनुष्ठान, यज्ञ, दान, तप आदि भी मुक्तिदायक नहीं हैं। इनका उपयोग तो चित्तशुद्धि के लिए किया जा सकता है, ताकि मन ज्ञान के लिए तैयार हो, परंतु अंतिम मोक्ष का कारण केवल आत्मबोध ही हो सकता है। इसलिए श्रुति के प्रमाण से यह बात दृढ़ रूप से स्थापित हो जाती है कि कर्म, चाहे वह कितना भी शुभ या पुण्य क्यों न हो, मुक्ति का कारण नहीं बन सकता।
कर्म जगत में परिवर्तन उत्पन्न करता है, परंतु आत्मा अजन्मा, अविकारी और शाश्वत है। जब तक कोई जीव अपने को कर्ता समझता है, तब तक वह कर्म के फल में बंधा रहता है, और यही बंधन जन्म-मरण के चक्र को उत्पन्न करता है। लेकिन जब ज्ञान होता है कि 'मैं आत्मा हूँ, अकर्ता हूँ,' तब उस बंधन का अंत होता है। इसलिए मोक्ष का साधन केवल आत्मसाक्षात्कार है, और यह ज्ञान श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा ही प्राप्त होता है, न कि किसी भी बाहरी संपत्ति या कर्म द्वारा।
इस प्रकार श्लोक का सार यह है कि मुक्ति के लिए न धन की आवश्यकता है, न कर्मकांड की—उसका एकमात्र कारण आत्मा का साक्षात ज्ञान है, जिसे केवल वेदांत के अध्ययन और गुरु के उपदेश से प्राप्त किया जा सकता है। श्रुति भी यही कहती है, इसलिए इसका प्रमाण सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!