"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 8वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अतो विमुक्त्यै प्रयतेत विद्वान् संन्यस्तबाह्यार्थसुखस्पृहः
सन् ।
सन्तं महान्तं समुपेत्य देशिकं तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा ॥ ८ ॥
अर्थ:- इसलिये विद्वान् सम्पूर्ण बाह्य भोगों की इच्छा त्यागकर सन्तशिरोमणि गुरुदेव की शरण जाकर उनके उपदेश किये हुए विषय में समाहित होकर मुक्ति के लिये प्रयत्न करे।
यह श्लोक "विवेकचूडामणि" का अष्टम श्लोक है, जिसमें आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक साधना का मार्ग बताया गया है। इसमें शंकराचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति वास्तव में विवेकशील और ज्ञानवान है, उसे अपने जीवन का उद्देश्य केवल मोक्ष या मुक्ति को बनाना चाहिए। संसारिक भोग और बाह्य सुखों की इच्छा त्यागकर, वह व्यक्ति उस दिशा में आगे बढ़े जहाँ से उसे वास्तविक शांति और परमार्थ की प्राप्ति हो सके। यह जीवन क्षणभंगुर और दुखों से भरा हुआ है। जितने भी बाह्य सुख हैं, वे सभी अनित्य हैं और अंततः दुःख का कारण बनते हैं। इसलिए विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह इन तुच्छ सुखों की कामना का परित्याग कर दे और अपने जीवन को परम सत्य की खोज में समर्पित करे।
यह मार्ग सरल नहीं है। इसलिए शंकराचार्य आगे कहते हैं कि ऐसे ज्ञान के पथ पर अग्रसर होने के लिए आवश्यक है कि एक साधक किसी ऐसे गुरु की शरण में जाए जो स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर चुके हों, जिनकी वाणी और आचरण पूर्णतः समरूप हों, जो स्वयं ब्रह्मनिष्ठ और श्रद्धावान हों। ऐसे सन्त-महात्मा की संगति में रहकर, उनके द्वारा बताए गए उपदेशों को आत्मसात करना चाहिए। मात्र शास्त्र पढ़ लेने से ज्ञान नहीं होता; जब तक कोई ज्ञानी गुरु उस ज्ञान को हृदय में प्रवाहित न करे, तब तक वह जीवित अनुभव नहीं बनता। इसलिए गुरु के चरणों में जाकर उनके उपदेशों को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करना और मन, बुद्धि व चित्त को उसी ज्ञान में समाहित करना आवश्यक है।
यहाँ 'सन्तं महान्तं' शब्द से यह संकेत मिलता है कि ऐसे गुरु सामान्य व्यक्ति नहीं होते; वे महान् आत्माएं होती हैं, जो स्वयं ब्रह्मस्वरूप में स्थित होती हैं। ऐसे गुरु की कृपा से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव है। गुरु के बिना यह मार्ग अत्यंत कठिन और भ्रमपूर्ण हो सकता है। जैसे अंधेरे जंगल में एक दीपक बिना पथदर्शक के कोई आगे नहीं बढ़ सकता, वैसे ही आत्मज्ञान का मार्ग गुरु के बिना पार करना कठिन है। अतः जो जिज्ञासु है, जो सत्य की प्राप्ति का इच्छुक है, उसे चाहिए कि वह संसारिक वस्तुओं और सुखों की स्पृहा को त्याग कर, गुरुकृपा और आत्मनिष्ठ साधना द्वारा मुक्ति की ओर अग्रसर हो।
‘तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा’ इस वाक्यांश का विशेष महत्त्व है। इसका अर्थ है कि साधक को केवल गुरु के उपदेश सुनकर रुकना नहीं है, बल्कि उस उपदेश के अर्थ में मन, चित्त और आत्मा को एकाग्र करके उसे जीवन में उतारना है। यही समर्पण की पूर्णता है। जब साधक इस प्रकार गुरुवाक्य को अपने जीवन का मूल बना लेता है, तब वह धीरे-धीरे अज्ञान के आवरण से मुक्त होकर आत्मस्वरूप की ओर अग्रसर होता है। यही सच्चा पुरुषार्थ है और यही जीवन का परम लक्ष्य है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!