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शनिवार, 3 मई 2025

"वेदान्त में ध्यान (ध्यान साधना) की प्रक्रिया"


"वेदान्त में ध्यान (ध्यान साधना) की प्रक्रिया"


ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ


ध्यान वेदान्त में आत्मसाक्षात्कार की अत्यंत प्रभावशाली साधना है, जिसके द्वारा साधक मन की चंचलता को निरोध करके आत्मस्वरूप में स्थित होता है। उपनिषदों में ध्यान को ब्रह्मविद्या का केंद्रबिंदु कहा गया है। मुण्डक उपनिषद् कहती है— "ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठाम्।" अर्थात् ब्रह्मज्ञान सभी विद्याओं की प्रतिष्ठा है, और यह ध्यान के द्वारा ही साध्य है। कठोपनिषद् में नचिकेता यमराज से पूछते हैं कि आत्मा को कैसे जाना जा सकता है, तब यम कहते हैं— "नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वṛणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।" (कठोपनिषद् 1.2.23) — "यह आत्मा प्रवचन, मेधा या बहुत सुनने से प्राप्त नहीं होती, केवल उसी को मिलती है जिसे वह स्वयं चुनता है; उसके लिए आत्मा स्वयं अपने स्वरूप को प्रकट करता है।" इसका तात्पर्य है कि ध्यान द्वारा अन्तर्मुखी होकर आत्मा को अनुभव करना ही ब्रह्मविद्या का सार है।


भगवद्गीता ध्यान योग को कर्म और ज्ञान के मध्य सेतु रूप में प्रस्तुत करती है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं — "युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी निगतमानसः। शांतिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥" (गीता 6.15) — "इस प्रकार निरंतर आत्मा में लीन होकर, मन को नियंत्रित करके, योगी परम शांति को, जो कि मेरे स्वरूप में स्थित है, प्राप्त करता है।" ध्यान का उद्देश्य केवल मानसिक शांति नहीं, बल्कि ब्रह्मस्वरूप में प्रतिष्ठा है। गीता का ध्यानयोग अध्याय (छठा अध्याय) ध्यान की सम्यक विधि और योगी के लक्षणों को विस्तार से वर्णित करता है, जो वेदान्त के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ ध्यान न केवल अभ्यास है, बल्कि वह स्थायी आत्मस्थिति की ओर यात्रा है।


श्री शंकराचार्य द्वारा रचित "विवेकचूडामणि" में ध्यान को आत्मानुभूति का आवश्यक साधन माना गया है। वे कहते हैं — "चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये। वस्तुसिद्धिर्-विचारेण न किंचित् कर्मकोटिभिः॥" — "कर्म का उद्देश्य चित्तशुद्धि है, न कि आत्मा की प्राप्ति; आत्मा की सिद्धि केवल विचार (विवेकपूर्ण ध्यान) से होती है, न कि करोड़ों कर्मों से।" ध्यान वह विचारशीलता है जो 'मैं कौन हूँ?' के प्रश्न को केंद्र में रखती है। इसी ग्रंथ में श्लोक है — "वाङ् मनसो अतिक्रान्तम्", जिससे स्पष्ट होता है कि ध्यान का लक्ष्य वाणी और मन के पार जाकर स्वानुभूति में प्रतिष्ठा पाना है। विवेकचूडामणि में आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए निरंतर 'निर्विकल्प ध्यान' की अनिवार्यता को रेखांकित किया गया है।


"आत्मबोध" में भी ध्यान को आत्मसाक्षात्कार का श्रेष्ठ उपाय बताया गया है। शंकराचार्य कहते हैं — "अज्ञानकालुषं देहं धर्माधर्मादिलक्षणम्। आत्मत्वेन मयं दृष्ट्वा पश्यत्यात्मानमव्ययम्॥" — "जो देह को अज्ञानजन्य मानकर, धर्म-अधर्म आदि गुणों से युक्त देखता है, वह आत्मा को अविनाशी रूप में देखता है।" इस देखने की प्रक्रिया ध्यान के द्वारा ही संभव है, जहाँ साधक देह, मन और बुद्धि को आत्मा से भिन्न जानकर 'द्रष्टा' भाव में स्थित होता है। ध्यान, उस दृष्टि का अभ्यास है जिसमें सब कुछ दृश्य है, और केवल आत्मा ही शुद्ध द्रष्टा है। आत्मबोध में 'नित्यानित्यवस्तुविवेक' के आधार पर ध्यान को 'स्वरूपज्ञान' की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है।


"दृष्टि-दृश्य-विवेक" ग्रंथ में ध्यान का अत्यंत सूक्ष्म विवेचन है। वहाँ कहा गया है — "द्रष्टा दृशिमात्रं ब्रह्मैव न तु दृश्यं कदाचन।" — "जो देखनेवाला है, वह मात्र चैतन्य ब्रह्म है, न कि दृश्य जगत्।" इस दर्शन को स्थिर करना ही ध्यान है। इस ग्रंथ में ध्यान को 'दृश्य के प्रति वैराग्य और द्रष्टा के प्रति सम्यक अनुसंधान' के रूप में समझाया गया है। जब साधक सब दृश्य वस्तुओं को बदलनेवाला, जड़ और अनात्म जानकर केवल 'देखनेवाले ब्रह्मस्वरूप' में लीन होता है, तो वही ध्यान की परिपक्व अवस्था है। यही 'साक्षीभाव' का अभ्यास, वेदान्तीय ध्यान का केन्द्र है, जिससे 'द्रष्टा-दृश्य' की भ्रामक द्वैतता समाप्त हो जाती है।


ब्रह्म सूत्र में भी ध्यान को अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वहाँ कहा गया है — "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।" (1.1.1) — "अब ब्रह्म की जिज्ञासा की जाती है।" यह जिज्ञासा मात्र बौद्धिक न होकर, ध्यान के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। शंकराचार्य की टीका में स्पष्ट किया गया है कि यह जिज्ञासा तब फलित होती है जब साधक 'श्रवण', 'मनन' के बाद 'निदिध्यासन' अर्थात् ध्यान द्वारा आत्मा में लीन होता है। 'निदिध्यासन' वही ध्यान है जिसमें 'अहं ब्रह्मास्मि' की अनुभूति स्थायी हो जाती है। वेदान्त में ध्यान का अभिप्राय मन को एकाग्र करने या किसी रूप विशेष पर चिंतन करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ध्यान स्वस्वरूप में स्थित होकर 'ब्रह्माभाव' को अनुभव करने की प्रक्रिया है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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