Total Blog Views

Translate

बुधवार, 7 मई 2025

"वेदान्त में ध्यान और आत्मिक विकास में आने वाली बाधाओं का समाधान"।


 "वेदान्त में ध्यान और आत्मिक विकास में आने वाली बाधाओं का समाधान"। 

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

ध्यान और आत्मिक साधना का पथ सरल प्रतीत होने पर भी अत्यंत गूढ़ और सूक्ष्म है। इस मार्ग में साधक को अनेक आन्तरिक और बाह्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है। वेदान्त के अनुसार इन बाधाओं का मूल कारण अज्ञान (अविद्या) है, जिससे जीव स्वयं को देह, मन और इन्द्रियों के साथ एकरूप मानता है। उपनिषदों में कहा गया है — “अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीरा पण्डितं मन्यमानाः” (कठोपनिषद् 1.2.5), अर्थात अज्ञान में रहने वाले लोग स्वयं को ज्ञानी मानते हैं, किन्तु वे सत्य को नहीं जानते। यह अज्ञान ही मन में चंचलता, विक्षेप, आलस्य, तामसिकता और आत्मसंदेह जैसे दोषों को जन्म देता है, जिससे ध्यान में स्थिरता नहीं आ पाती। विवेकचूडामणि में शङ्कराचार्य स्पष्ट करते हैं — “चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये”, अर्थात् चित्त की शुद्धि के लिए कर्म आवश्यक हैं, परन्तु आत्मतत्त्व की अनुभूति केवल ज्ञान से ही होती है। अतः ध्यानपूर्वक जीवन की वृत्तियों को पहचानना और शुद्ध करना प्रथम चरण है।

ध्यान के मार्ग में जो प्रमुख बाधाएँ आती हैं, उनमें मन की अस्थिरता (विक्षेप), इन्द्रियासक्तता (राग-द्वेष), आत्मसंदेह (संदेहः), आलस्य (आलस्यं), तथा गहन वृत्तियों के संस्कार प्रमुख हैं। भगवद्गीता (6.35) में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं — “असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं, अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते”, अर्थात् हे महाबाहो, निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में आनेवाला है, परन्तु अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है। यहाँ अभ्यास का अर्थ है आत्मस्मरण, ध्यान और सतत विवेक, जबकि वैराग्य का तात्पर्य है इन्द्रियों के विषयों से विमुख होकर आत्मा की ओर उन्मुख होना। आत्मबोध ग्रन्थ में भी शङ्कराचार्य कहते हैं — “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः”, अर्थात् मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। इसलिए मन को साधने की दिशा में किया गया प्रत्येक प्रयास आत्मिक विकास का आधार है।

ध्यान में अगली बाधा आती है — आत्मसंदेह और आध्यात्मिक निराशा। जब साधक को ध्यान में कोई अनुभव नहीं होता, या कभी-कभी मन और इन्द्रियाँ अधिक तीव्रता से विचलन करने लगती हैं, तब वह यह सोचने लगता है कि “क्या मैं योग्य हूँ? क्या यह मार्ग मेरे लिए है?” ब्रह्मसूत्र में स्पष्ट कहा गया है — “तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्” (ब्रह्मसूत्र 1.1.1), अर्थात् उस ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिए गुरु के पास जाना चाहिए। गुरु ही वह प्रकाशपुंज है जो साधक को निराशा से उबारकर सत्पथ पर अग्रसर करता है। विवेकचूडामणि में गुरु की महिमा इस प्रकार वर्णित है — “यो गुरुः स शिवः प्रोक्तः, यः शिवः स गुरुः स्मृतः”, अर्थात् जो गुरु हैं वही शिव हैं, और जो शिव हैं वही गुरु हैं। साधक को चाहिए कि वह शास्त्र, गुरु और आत्मचिंतन के आधार पर आत्मविश्वास को पुनः स्थापित करे।

एक अत्यन्त सूक्ष्म बाधा जो ध्यान में आती है वह है — ‘अहंकार’ का सूक्ष्म रूप, जिसे ‘अभिमान’ कहा जाता है। जब ध्यान में थोड़ी स्थिरता आती है, जब साधक को शांत अनुभव होने लगता है, तब मन चुपचाप कहता है — “मैं अब साधक बन गया हूँ”, “मैं आत्मा का अनुभव कर रहा हूँ।” यह ‘ध्यानकर्ता’ का भाव स्वयं में एक नया बंधन बन जाता है। दृष्टि-दृश्य-विवेक में कहा गया है — “दृग् रूपं यत् सदा एकं, दृश्यं तदन्यत् सदा जडम्”, अर्थात् जो एक रूप में सदा विद्यमान है वही दृष्टा है और जो बदलता रहता है वह दृश्य है। जब तक यह ‘मैं ध्यान कर रहा हूँ’ का भाव बना रहेगा, तब तक पूर्ण लीनता (समाधि) सम्भव नहीं। आत्मबोध में शङ्कराचार्य कहते हैं — “नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहं अहम् सदा”, अर्थात् न मैं शरीर हूँ, न शरीर मेरा है, न ही मैं जीव हूँ — मैं सदा आत्मस्वरूप हूँ। ध्यान में यह बोध धीरे-धीरे गहराता है।

वेदान्त का मत है कि ध्यान कोई क्रिया नहीं, बल्कि आत्मा में स्थित होने की स्थिति है। परन्तु उस स्थिति में पहुँचने के लिए निरन्तर अभ्यास और समर्पण आवश्यक है। उपनिषदों में कहा गया है — “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः, न मेधया न बहुना श्रुतेन, यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्” (मुण्डकोपनिषद् 3.2.3), अर्थात् यह आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, और न ही बहुत श्रवण से प्राप्त होती है, बल्कि जिस साधक का हृदय आत्मा को पाना चाहता है, उसे आत्मा स्वयं प्रकट होती है। यह समर्पण, यह गहन तन्मयता, ध्यान को एक साधना से समाधि में परिवर्तित करती है। अतः अभ्यास, वैराग्य, श्रद्धा और गुरु-कृपा — ये चार साधन ध्यान की बाधाओं को दूर कर आत्मा की अनुभूति में सहायक बनते हैं।

अंततः जब साधक इन सभी बाधाओं से ऊपर उठता है, तो वह उस अवस्था को प्राप्त करता है जिसे वेदान्त समाधि कहता है — जहां न कोई साधना शेष रहती है, न कोई साधक। केवल ब्रह्मस्वरूप की पूर्ण स्थिति होती है। भगवद्गीता (6.20-21) में वर्णन है — “यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया, यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति”, अर्थात् जहाँ साधना द्वारा चित्त शांत हो जाता है और साधक आत्मा में ही आत्मा को देखकर तुष्ट होता है, वही समाधि है। विवेकचूडामणि में इसे अंतिम रूप से इस प्रकार कहा गया — “ब्रह्मैवाहमिदं सर्वं नान्यदस्ति किञ्चन”, अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ, यही सर्वस्व है, और इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जब यह अनुभूति सतत बनी रहती है, तब ध्यान बाधाओं से मुक्त होकर पूर्ण आत्मबोध में रूपांतरित हो जाता है। 


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

"You can read this blog in any language. All you need to do is click on the translate button provided at the top left corner of the page. By clicking it, you can read it in your preferred language."

आप इस ब्लॉग को किसी भी भाषा में पढ़ सकते हैं आपको बस इतना करना है कि पेज के ऊपर बायें हिस्से में ट्रांसलेट का बटन दिया गया है। आप उसे क्लिक कर के अपनी मनपसंद भाषा में इसे पढ़ सकते हैं।


Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.