"आदि शंकराचार्य की आत्मसाक्षात्कार पर शिक्षाएँ"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आदि शंकराचार्य की शिक्षाएँ आत्मा की वास्तविकता को प्रकट करने की दिशा में गहन दर्शन प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने आत्मा को ब्रह्म के समान अभिन्न, निराकार, निरविकारी और सर्वव्यापक बताया है। आत्मा का स्वरूप चिदानन्दरूप, अव्यक्त और अजन्य है, जिसे अविद्या के कारण जीव सीमित अनुभव करता है। उपनिषदों में यह ज्ञान बारंबार प्रतिपादित हुआ है। मुण्डकोपनिषद् कहता है — "ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरश्चोर्ध्वं च ब्रह्मैवेदं विश्वं" — अर्थात् यह समस्त जगत् ब्रह्म ही है, जो सब ओर व्याप्त है। शंकराचार्य ने इस श्लोक की व्याख्या करते हुए कहा कि ब्रह्म और आत्मा में भेद नहीं है, यह बोध ही आत्मसाक्षात्कार की कुंजी है। विवेकचूडामणि में शंकराचार्य लिखते हैं — "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" — यह महावाक्य इस अद्वैत दर्शन का सार है। आत्मा को जानने के लिए संसार की मिथ्यात्व दृष्टि आवश्यक है, जो विवेक और वैराग्य के माध्यम से प्राप्त होती है।
शंकराचार्य आत्मबोध में आत्मज्ञान की साधना को आवश्यक बताते हैं। वे लिखते हैं — "अज्ञानयोगात्परमात्मनः सन्संसारित्वं याति विचारहीनः। तन्मूलनं ज्ञानविचारेण कर्तव्यमेवात्मविवेकिनाः॥" — अर्थात अज्ञानवश आत्मा संसार में फँसी प्रतीत होती है, परंतु विवेकयुक्त ज्ञान से उसका निवारण किया जा सकता है। आत्मबोध की शिक्षाओं में ध्यान, वैराग्य और आत्मविचार की प्रक्रिया के माध्यम से आत्मा का शुद्ध ज्ञान प्राप्त करने की विधि स्पष्ट की गई है। आत्मा न तो कर्ता है, न भोक्ता; यह शुद्ध साक्षी है। दृष्टि-दृश्य-विवेक में यही स्पष्ट किया गया है — "दृश्यं ज्ञानमयं चित्तं चित्रं यद्यपि दृश्यते। दृष्टेरन्यं तु यत्साक्षि तदात्मेत्यभिधीयते॥" — यहाँ 'दृष्टा' को आत्मा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो चित्त और उसके विचारों का साक्षी मात्र है। यह आत्मा कभी विकारों से ग्रस्त नहीं होती, वह शुद्ध और निर्विकल्प है।
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा का निरूपण करते हुए बताया — "न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥" (गीता 2.20)। शंकराचार्य ने गीता भाष्य में इस श्लोक को स्पष्ट करते हुए कहा कि आत्मा शरीर से परे है, यह नित्य है और कभी नष्ट नहीं होती। आत्मसाक्षात्कार के लिए इस नित्य आत्मा को अपने स्वरूप में जानना आवश्यक है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि आत्मज्ञान कर्मों के फलस्वरूप नहीं, बल्कि गुरु उपदेश और शास्त्रविचार से प्राप्त होता है। ब्रह्मसूत्र में कहते हैं — "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" — अब ब्रह्म की जिज्ञासा करें। शंकराचार्य अपने भाष्य में बताते हैं कि जब मनुष्य संसार के अनुभवों से तृप्त हो जाता है और शाश्वत सत्य की ओर आकृष्ट होता है, तभी आत्मसाक्षात्कार की भूमि तैयार होती है। यह जिज्ञासा ही साधक को आत्मविचार की ओर ले जाती है।
विवेकचूडामणि में शंकराचार्य आत्मज्ञान की प्राप्ति के चार साधनों को बताते हैं — विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति और मुमुक्षुत्व। वे कहते हैं — "तदेव संप्रदायं तु ब्रह्मविद्यायाः कारणम्। यः स्याद्गुरुकृपापात्रं शास्त्रज्ञानप्रवृत्तये॥" — शास्त्रज्ञान की प्राप्ति गुरु कृपा से होती है। गुरु के सान्निध्य में शिष्य आत्मा और ब्रह्म के अभेद को समझता है। शंकराचार्य आत्मसाक्षात्कार को किसी चमत्कारी अनुभव से नहीं जोड़ते, बल्कि इसे एक साक्षात् बोध मानते हैं जो आत्मविचार और समाधि की गहराई में अनुभव होता है। आत्मा को जानने के लिए पहले व्यक्ति को जगत् के मिथ्यात्व का बोध होना चाहिए, और यह तभी संभव है जब चित्त शुद्ध और एकाग्र हो। अतः साधना, संयम, और ध्यान को वे अत्यंत आवश्यक बताते हैं।
शंकराचार्य ने आत्मा को 'नित्यमुक्त' कहा है, जिसका अर्थ है कि आत्मा कभी बंधन में थी ही नहीं; केवल अज्ञान के कारण बंधन का भ्रम है। जैसे बादलों से ढका सूर्य अस्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा अज्ञान के कारण अदृश्य प्रतीत होती है। जब ज्ञान का प्रकाश होता है, तो आत्मा का स्वरूप प्रकट होता है। दृष्टि-दृश्य-विवेक में कहते हैं — "न च दृश्यं सदा स्थाणुः दृष्टिर्नित्योपलब्ध्यपि। दृश्यं यन्नाशवत्तच्च दृष्टिः स्थाणुरिव स्थितः॥" — दृश्य बदलते हैं, पर दृष्टा (आत्मा) अडोल रहता है। आत्मा की यह नित्यता ही उसका स्वरूप है। आत्मसाक्षात्कार में यह जानना आवश्यक है कि ‘मैं शरीर, मन, बुद्धि नहीं हूँ’, बल्कि ‘मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ’। यह बोध ही मोक्ष का द्वार है।
अंततः, आदि शंकराचार्य की समस्त शिक्षाओं का लक्ष्य यह है कि साधक मिथ्या की पहचान करे और सत्य का अनुभव करे। उन्होंने कहा कि आत्मा को जानना कोई नया अनुभव नहीं, बल्कि अपनी वास्तविकता को पहचानना है। उपनिषदों का महावाक्य — "तत्त्वमसि" — अर्थात् ‘तू वही ब्रह्म है’, आत्मसाक्षात्कार की घोषणा है। जब साधक इस सत्य को अपने अनुभव में उतार लेता है, तब उसके समस्त दुख समाप्त हो जाते हैं और वह मुक्त हो जाता है। शंकराचार्य ने यह भी कहा कि यह आत्मज्ञान केवल विद्वानों का विषय नहीं है, बल्कि हर उस साधक का अधिकार है जो विवेक, वैराग्य और श्रद्धा के साथ आत्मविचार करे। आत्मसाक्षात्कार का मार्ग अत्यंत सूक्ष्म है, परंतु गुरु, शास्त्र और साधना की सहायता से यह संभव है। यही शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत है — आत्मा और ब्रह्म का एकत्व, और इस ज्ञान से उत्पन्न मुक्त अवस्था।