"आदि शंकराचार्य का संक्षिप्त जीवन परिचय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आदि शंकराचार्य का जन्म आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में केरल के कालड़ी ग्राम में हुआ था। वे एक बालब्रह्मचारी के रूप में जन्मे और अल्पायु में ही ज्ञान की अद्भुत प्रतिभा प्रकट की। बचपन से ही उनमें अद्वैत वेदांत की गहरी प्रवृत्ति थी। उनका जीवन उद्देश्य था—वेदों के अद्वैत सत्य की स्थापना। उन्होंने अपने जीवन को ब्रह्मविद्या की सेवा में अर्पित कर दिया। शंकराचार्य ने उपनिषदों के गूढ़ रहस्यों को सरलता से उजागर किया। छांदोग्य उपनिषद कहती है: "तत्त्वमसि" — "तू वही ब्रह्म है।" शंकराचार्य ने इस महावाक्य की व्याख्या करते हुए बताया कि जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं, यह भेद केवल अज्ञान से उत्पन्न होता है। उन्होंने आत्मा को अविनाशी, निराकार, शुद्ध और चैतन्यमय बताया। जैसा कि आत्मबोध में कहा गया है—"सच्चिदानन्द रूपोऽहमात्मा", अर्थात मैं सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा हूं।
शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में मठों की स्थापना की—ज्योतिर्मठ (उत्तर), गोवर्धनमठ (पूर्व), शृंगेरी मठ (दक्षिण), और द्वारका मठ (पश्चिम)—ताकि वेदांत का प्रचार-प्रसार हो सके। उन्होंने अद्वैत सिद्धांत को केवल शास्त्रों तक सीमित न रखते हुए जीवन में आत्मसात करने का मार्ग बताया। उनके अनुसार मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान से ही संभव है, न कि कर्मकांडों से। जैसा कि भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" (अध्याय 4, श्लोक 38), इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र कुछ नहीं है। शंकराचार्य इसी ज्ञान की स्थापना में लगे रहे। उन्होंने दिखाया कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और संसार मायामय है। ब्रह्म सूत्र में भी कहा गया है: "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा", अर्थात अब ब्रह्म के बारे में जिज्ञासा करो। उन्होंने इसी जिज्ञासा को जीवन का केंद्र बनाया।
शंकराचार्य ने 'विवेकचूडामणि' में अद्वैत वेदांत के सभी मूल सिद्धांतों को स्पष्ट किया। उन्होंने विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति और मुमुक्षुत्व को आत्मसाक्षात्कार की पहली सीढ़ी बताया। ग्रंथ के अनुसार: "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः", अर्थात ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि आत्मा न तो कर्ता है, न भोक्ता, वह केवल साक्षी है। दृष्टि-दृश्य-विवेक में यह कहा गया है: "दृगं सदा एकं दृश्यं विविधं", अर्थात द्रष्टा (आत्मा) सदा एक है, जबकि दृश्य अनेक और परिवर्तनशील हैं। यह दृष्टिकोण हमारे अनुभवों के पार जाकर आत्मसत्ता को जानने का आधार बनता है।
आदि शंकराचार्य का जीवन एक तपस्वी, दार्शनिक और संन्यासी के रूप में बीता। वे मात्र 32 वर्ष की आयु में इस संसार से विदा हो गए, परंतु उन्होंने इतने कम समय में वेदांत के जिस विशाल ज्ञान का प्रसार किया, वह युगों तक प्रेरणा देता रहेगा। आत्मबोध में उन्होंने लिखा: "न चासङ्गोऽस्मि संसारे", मैं संसार से आसक्त नहीं हूं, यह भावना उनके सम्पूर्ण जीवन को परिभाषित करती है। वे सदैव ब्रह्मनिष्ठ रहे। उन्होंने भिन्न-भिन्न दर्शनों से शास्त्रार्थ किया, पर उनका उद्देश्य विवाद नहीं, सत्यान्वेषण था। उन्होंने मायावाद की व्याख्या करते हुए यह बताया कि यह संसार ब्रह्म की शक्ति से उत्पन्न प्रतीत होता है, परंतु वास्तव में केवल ब्रह्म ही शुद्ध तत्त्व है। यह विचार उपनिषदों की मूल आत्मा से मेल खाता है: "नेति नेति"—यह नहीं, यह भी नहीं, जो आत्मा को सभी उपाधियों से परे बताता है।
शंकराचार्य ने शिष्य-परंपरा की महत्ता को भी स्वीकार किया और बताया कि आत्मसाक्षात्कार बिना गुरु के असंभव है। 'विवेकचूडामणि' में उन्होंने स्पष्ट लिखा: "गुरोः कृपया केवलं शिष्यस्य आत्मसम्बोधनं भवति", केवल गुरु की कृपा से ही आत्मबोध संभव है। उनका जीवन इसी गुरु-शिष्य परंपरा का आदर्श रूप था। उन्होंने गोविंद भगवत्पाद से दीक्षा ली और अपने शिष्यों—पद्मपाद, सुरेश्वराचार्य, तोटकाचार्य, हस्तामलक आदि को वेदांत का गहन ज्ञान प्रदान किया। उन्होंने जीवन को तप, ज्ञान और सेवा का संगम माना। गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं: "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया" (अध्याय 4, श्लोक 34), उस ज्ञान को गुरु के पास जाकर नम्रता, प्रश्न और सेवा से जानो। यह सिद्धांत शंकराचार्य के जीवन का मूल आधार था।
आदि शंकराचार्य की शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस समय थीं। उन्होंने हमें यह दिखाया कि आत्मा केवल एक है, और उसका अनुभव ही वास्तविक मुक्ति है। उन्होंने कहा कि आत्मा कोई बाह्य वस्तु नहीं, बल्कि यही हमारी अंतःचेतना है—जैसे कि आत्मबोध में है: "आत्मा चिद्रूपः सदा मुक्त एव", आत्मा चिदानंद स्वरूप है और सदा मुक्त है। उन्होंने ज्ञान को न केवल बौद्धिक अभ्यास बल्कि आंतरिक रूपांतरण का साधन बताया। उनके अनुसार जब तक दृष्टा को दृश्य से अलग न किया जाए, तब तक आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं। दृष्टि-दृश्य-विवेक इसी को स्पष्ट करता है: "यत् साक्षाद् अपरोक्षानुभवः ब्रह्म एवेति", जो प्रत्यक्ष अनुभव में आता है, वही ब्रह्म है। उनका जीवन इसी ब्रह्म अनुभव की साक्षात अभिव्यक्ति था।