आदि शंकराचार्य की तीन प्रमुख रचनाएँ — 'विवेकचूड़ामणि', 'उपदेशसाहस्री' और 'आत्मबोध'
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आदि शंकराचार्य भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के अद्वितीय दीपस्तंभ हैं। उनका उद्देश्य वेदांत के अद्वैत दर्शन को पुनः प्रतिष्ठित करना था, जो यथार्थ में आत्मा और ब्रह्म के अभिन्नता का बोध कराता है। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें 'विवेकचूड़ामणि', 'उपदेशसाहस्री' और 'आत्मबोध' विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। इन ग्रंथों में शंकराचार्य ने उपनिषदों, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र के गूढ़ रहस्यों को सरल भाषा में आत्मज्ञान के साधकों के लिए प्रस्तुत किया है। जैसे कि मुण्डकोपनिषद् कहती है – “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वṛणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥” — अर्थात् आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धिमत्ता से, और न अधिक श्रवण से प्राप्त होता है, बल्कि जिसे यह आत्मा स्वयं चुनता है, उसी को यह अपने को प्रकट करता है। यह उद्घोषण शंकर के दृष्टिकोण की पुष्टि करता है कि आत्मा के साक्षात्कार हेतु साधक को निर्मल चित्त, विवेक और गुरु-शरणागति की आवश्यकता होती है।
'विवेकचूड़ामणि' में शंकराचार्य ने आत्मसाक्षात्कार की योग्यता के चार साधन—विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति और मुमुक्षुत्व—का विश्लेषण किया है। पहले ही श्लोक में वह कहते हैं—“जन्मदुर्लभमिदं त्रयमेव तदानुग्रहहेतुका: पुरुषत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥” — अर्थात् मनुष्य जन्म, मोक्ष की तीव्र इच्छा और सद्गुरु की शरण ये तीनों अत्यंत दुर्लभ हैं और ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होते हैं। इस ग्रंथ में आत्मा और अनात्मा का विवेक करके, उपाधियों को त्यागने तथा चैतन्य स्वरूप में स्थित होने का उपदेश दिया गया है। “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः” — यह अद्वैत वेदांत का मूल सूत्र है, जिसे विवेकचूड़ामणि में प्रतिपादित किया गया है। यह श्लोक स्पष्ट करता है कि जगत मिथ्या है, ब्रह्म ही सत्य है, और जीव कोई भिन्न सत्ता नहीं है, वह भी ब्रह्मस्वरूप ही है।
'उपदेशसाहस्री' शंकराचार्य की एक अनुपम गद्य-पद्यात्मक रचना है, जो आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त होनेवाले साधक के लिए गुरु के उपदेशों का संकलन है। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि आत्मज्ञान ही एकमात्र मोक्ष का साधन है और यह केवल ज्ञान से ही संभव है, न कि कर्मों से। “न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” — इस कठोपनिषद् के श्लोक को आधार बनाते हुए शंकर यह प्रतिपादित करते हैं कि त्याग के द्वारा ही अमृतत्व की प्राप्ति होती है। इस ग्रंथ में उन्होंने ‘नेति-नेति’ के द्वारा शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि को अनात्मा मानकर आत्मा के साक्षात्कार की प्रक्रिया समझाई है। जैसे गीता में भगवान कहते हैं — “न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥” (गीता 2.20), — आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, न मरती है। इसी सत्य को शंकराचार्य ने उपदेशसाहस्री में बार-बार विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से प्रकट किया है।
'आत्मबोध' शंकराचार्य की संक्षिप्त लेकिन अत्यंत प्रभावशाली कृति है, जिसमें 68 श्लोकों के माध्यम से आत्मा की पहचान और बन्धनों से मुक्ति की प्रक्रिया बताई गई है। इसमें वे कहते हैं—“पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्। मूर्खाः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञां प्रयुञ्जते॥” अर्थात् इस पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं—जल, अन्न और ज्ञानयुक्त वाणी; लेकिन मूर्ख लोग पत्थरों को ही रत्न समझते हैं। आत्मबोध में शंकर ने आत्मा को 'साक्षी', 'द्रष्टा' और 'असंग' कहा है, और कहा है कि जब तक अज्ञान रूपी अंधकार रहता है, तब तक जीव मिथ्या जगत को सत्य समझता है। जैसे गीता कहती है — “यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥” (गीता 6.19) — जैसे वायु रहित स्थान में दीपक स्थिर रहता है, वैसे ही आत्म-स्थित ज्ञानी की चित्तवृत्तियाँ स्थिर हो जाती हैं।
शंकराचार्य की शिक्षाओं को समझने के लिए 'दृष्टि-दृश्य-विवेक' एक सहायक ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने ‘द्रष्टा’ और ‘दृश्य’ के बीच के भेद को स्पष्ट किया है। पहला ही श्लोक कहता है—“रूपं दृश्यं लोचनं दृश्यं तद् दृश्यं दृक् तू मानसम्। दृश्यधीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते॥” — अर्थात् रूप दृश्य है, नेत्र उसका द्रष्टा है; नेत्र भी मन के लिए दृश्य है और उसकी वृत्तियाँ भी साक्षी आत्मा के लिए दृश्य हैं; परंतु साक्षी स्वयं कभी दृश्य नहीं बनता। यह उपदेश आत्मबोध और उपदेशसाहस्री की अवधारणाओं को और भी गहराई प्रदान करता है। ब्रह्मसूत्र के पहले सूत्र — “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” — के आधार पर शंकराचार्य ने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि जब संसार की असारता का बोध होता है, तभी ब्रह्म की जिज्ञासा जाग्रत होती है।
इन तीनों ग्रंथों में शंकराचार्य ने स्पष्ट किया कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और उस सत्य का बोध ही जीव के सभी दुखों का अंत है। उपनिषदों की वाणी — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” (छांदोग्योपनिषद्) — इस एकत्व का उद्घोष करती है। ब्रह्म को जानना आत्मा को जानना है, और आत्मा को जानना ही मुक्ति है। इस ज्ञान की प्राप्ति गुरु, शास्त्र और साधना के त्रिवेणी संगम से होती है। साधक को न केवल विवेक और वैराग्य अपनाना होता है, बल्कि सतत मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मा में स्थित रहना होता है। जैसे भगवद्गीता में कहा गया है — “ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥” (गीता 18.54) — जो ब्रह्मस्वरूप में स्थित हो जाता है, वह न शोक करता है, न आकांक्षा करता है, वह सभी में समभाव रखता है और मेरी परम भक्ति को प्राप्त होता है।
अतः शंकराचार्य के ग्रंथों में जो मार्ग प्रस्तुत किया गया है, वह केवल शाब्दिक ज्ञान नहीं है, बल्कि एक जीवित अनुभव की ओर प्रेरणा है। उनके अनुसार आत्मज्ञान केवल सिद्धांत नहीं, अपितु प्रत्यक्षानुभव का विषय है। उपनिषदों, गीता और ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि आत्मा से भिन्न कोई सत्य नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है — “अहं ब्रह्मास्मि”, “तत्त्वमसि”, “सोऽहम्” जैसे महावाक्य इसी अद्वैत का उद्घोष करते हैं। इन ग्रंथों का अध्ययन केवल पठन नहीं, आत्ममंथन है। शंकराचार्य की यह कृपा है कि उन्होंने हमें इन साधनाओं के द्वारा आत्मा के स्वरूप में प्रतिष्ठित होने का मार्ग सुलभ किया।