“आदि शंकराचार्य की उपनिषदों और भगवद्गीता पर टीका”
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदान्त की व्याख्या करते हुए उपनिषदों और भगवद्गीता पर जो भाष्य लिखे, वे भारतीय दर्शन के अमूल्य रत्न हैं। उनके भाष्य का मूल उद्देश्य यह था कि जीव, जगत और ब्रह्म का स्वरूप स्पष्ट किया जाए और माया से ग्रसित जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित किया जाए। उपनिषदों में वर्णित ब्रह्मविद्या का वे अत्यंत सरल और तर्कपूर्ण ढंग से विश्लेषण करते हैं। उदाहरण के लिए मुण्डकोपनिषद् में आता है — “स त्येष नैषा धारणा या यां बृहती विनिर्मिमीत” — यह दर्शाता है कि ब्रह्म को इंद्रियों और मन के माध्यम से नहीं जाना जा सकता, वह केवल आत्मज्ञान से ही उपलब्ध होता है। शंकराचार्य कहते हैं कि ब्रह्म को जानने के लिए शास्त्र और गुरु का सहारा आवश्यक है, और यह जानना ही मोक्ष का कारण है। वे यह भी कहते हैं कि जब तक आत्मा और ब्रह्म के भेद का अज्ञान बना रहेगा, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा। अतः उन्होंने अपने भाष्यों में "अविद्या" को बंधन का मूल कारण और "विवेक" को उसका नाशक बताया।
भगवद्गीता पर शंकराचार्य का भाष्य अत्यंत प्रसिद्ध है, जिसमें उन्होंने गीता के समस्त श्लोकों की व्याख्या अद्वैत दृष्टिकोण से की है। वे कहते हैं कि अर्जुन का मोह केवल बाह्य कर्म के धरातल पर नहीं था, बल्कि आत्मा और शरीर के मिथ्या संबंध के कारण था। गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं — “न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः” (२.१२), अर्थात् — “न तो मैं कभी नहीं था, न तुम और न ये राजा। हम सब सदा से हैं और सदा रहेंगे।” इस पर शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि आत्मा नित्य, अविनाशी और अजन्मा है। गीता की शिक्षाओं को वे केवल कर्मयोग, भक्तियोग या ज्ञानयोग तक सीमित नहीं करते, अपितु सभी को आत्मसाक्षात्कार के लिए सहायक मानते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि गीता में “कर्म” की प्रशंसा प्रारंभ में केवल उस साधक के लिए है जो अभी ज्ञानयोग के लिए पूर्णतः तैयार नहीं हुआ है। जब शुद्ध अंतःकरण हो जाता है, तब “ज्ञान” ही अंतिम उपाय होता है। आत्मबोध ग्रंथ में वे कहते हैं — “ज्ञानहेयोऽनात्मा ज्ञान्या लभ्य आत्मा”, अर्थात् — अज्ञान्य वस्तु को ज्ञान से त्यागकर आत्मा को जाना जाता है।
शंकराचार्य के अनुसार वेदांत का मूल लक्ष्य है ब्रह्म की प्राप्ति, जिसे केवल उपनिषदों के अध्ययन, गुरु के सान्निध्य और मन की एकाग्रता से ही संभव किया जा सकता है। वे बार-बार यह कहते हैं कि आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि किसी प्रकार का कर्म या यज्ञ। “न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” — यह कठोपनिषद का प्रसिद्ध श्लोक है जिसका वे अत्यंत प्रभावी ढंग से उपयोग करते हैं। अर्थात् — न कर्म से, न संतान से, न धन से, केवल त्याग (वैराग्य) से ही अमरत्व की प्राप्ति होती है। यही वैराग्य उन्होंने विवेकचूडामणि में भी समझाया है — “विचारसारः पुरुषस्य धर्मः विवेकवैराग्यसमन्वितः स्यात्”। यह शंकराचार्य की शैली थी कि वे विभिन्न ग्रंथों से उद्धरण लेते हुए एक तार्किक, अनुभवसिद्ध और उपनिषदसम्मत दृष्टिकोण प्रस्तुत करते थे, जो न केवल आध्यात्मिक साधकों को मार्गदर्शन देता है, बल्कि बौद्धिक जिज्ञासुओं को भी संतुष्ट करता है।
ब्रह्मसूत्र पर शंकराचार्य का भाष्य अद्वैत वेदान्त की नींव है। पहला सूत्र ही है — “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा”, अर्थात् अब ब्रह्म की जिज्ञासा करें। इस पर शंकराचार्य कहते हैं कि जब मनुष्य संसार के कर्तव्य और इच्छाओं से विरक्त हो जाता है, तब ब्रह्म को जानने की इच्छा प्रकट होती है। वे इस सूत्र से सिद्ध करते हैं कि ब्रह्म कोई कर्मों से सिद्ध वस्तु नहीं है, वह तो सदा से सिद्ध है और उसे केवल ज्ञान से जाना जा सकता है। दूसरा सूत्र — “जन्माद्यस्य यतः” — से वे यह स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्म ही इस समस्त सृष्टि का कारण है, परंतु यह कारणता भी केवल व्यावहारिक दृष्टिकोण से है, क्योंकि अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म केवल “अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण” है। दृष्टि-दृश्य-विवेक ग्रंथ में शंकराचार्य लिखते हैं — “दृश्यं नाशं उपैतिनित्यं, दृष्टा केवलं अवशिष्यते”, अर्थात् दृश्य वस्तुएँ नाशवान हैं, परंतु जो देखने वाला है — वह सदा बना रहता है। यही दृष्टा ही आत्मा है, और यही ब्रह्म है।
शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों में माया और अविद्या की व्याख्या भी अत्यंत सशक्त ढंग से की है। वे कहते हैं कि जब तक “माया” के प्रभाव से जीव को शरीर, मन और इंद्रियों से अपने को अलग नहीं समझता, तब तक वह दुख से ग्रस्त रहेगा। विवेकचूडामणि में वे स्पष्ट करते हैं — “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः”, अर्थात् — ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं। यही अद्वैत का सार है। वे यह भी कहते हैं कि जब तक “अहम् देहः” की भावना रहती है, तब तक दुःख बना रहता है। आत्मबोध में लिखा है — “आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूपः नित्यः शुद्धः बुद्धः मुक्तः”, अर्थात् आत्मा सदा से सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है, वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। शंकराचार्य के अनुसार यह ज्ञान ही एकमात्र उपाय है जिससे आत्मा का बंधन समाप्त होता है।
अंततः आदि शंकराचार्य ने जो अद्वैत वेदान्त की व्याख्या उपनिषदों, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्रों के माध्यम से की, वह केवल दार्शनिक मत नहीं, बल्कि जीव के लिए मुक्ति का व्यावहारिक मार्ग है। उनका समस्त शिक्षण इसी पर आधारित है कि जीव ब्रह्म का ही स्वरूप है, परंतु अज्ञानवश वह अपने को पृथक समझ बैठा है। इस अज्ञान को नष्ट करने के लिए उन्होंने ज्ञान, श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि को आवश्यक साधन बताया। उन्होंने भक्तिपथ को भी नकारा नहीं, अपितु “निर्गुण ब्रह्म” की ओर प्रवृत्त होने की अवस्था माना। उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस काल में थीं। उनका जीवन और उनके ग्रंथ इस बात का प्रमाण हैं कि भारत की ज्ञान परंपरा में शंकराचार्य जैसा योगी, दार्शनिक और शास्त्रार्थकर्ता विरले ही होता है। उनके भाष्यों की सजीवता और तार्किकता आज भी आत्मसाधकों को ब्रह्मज्ञान की ओर प्रेरित करती है।