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सोमवार, 12 मई 2025

"'अविद्या' की अवधारणा और बंधन"



"'अविद्या' की अवधारणा और बंधन"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

अविद्या अर्थात अज्ञान, अद्वैत वेदांत में जीव के बंधन का मूल कारण मानी गई है। उपनिषदों में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा स्वयं स्वप्रकाश, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरूप है, किन्तु जीव जब अपने शुद्ध स्वरूप को न जानकर शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि को 'मैं' मान लेता है, तो वह बंधन में पड़ जाता है। यह मिथ्या पहचान ही अविद्या है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है – “परिक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्रह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन” – "जब व्यक्ति कर्मों से प्राप्त लोकों की असारता को जानकर निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त करता है, तब उसे ज्ञात होता है कि अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति केवल ज्ञान से ही संभव है, न कि कर्मों से।" यहाँ पर उपनिषद स्पष्ट करते हैं कि अविद्या के प्रभाव से ही जीव कर्मों में उलझता है और परमात्मा से दूर रहता है। जब यह अविद्या नष्ट होती है, तब ही आत्मज्ञान संभव होता है।

विवेकचूडामणि में आदिशंकराचार्य ने अविद्या को मूलतः शरीर, मन, बुद्धि आदि को आत्मा मानने की भ्रांति कहा है। श्लोक 108 में कहा गया है – “अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मान्यमानाः। दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढाः अन्धेनैव नीयमाना यथाऽन्धाः॥” अर्थात, जो लोग अविद्या में रहते हैं, वे स्वयं को ज्ञानी मानते हैं, परन्तु वे अंधकार में डूबे हुए अंधों के समान अंधों का अनुसरण करते हुए भ्रमित होते हैं। इस श्लोक में अद्वैत का मर्म है – जब तक अविद्या का अंधकार है, तब तक बंधन है, चाहे व्यक्ति जितना भी पांडित्य प्रदर्शित करे। यह भ्रांति – ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं कर्ता हूँ’, ‘मैं भोक्ता हूँ’ – यही बंधन की जड़ है।

आत्मबोध ग्रंथ में भी अविद्या को संसार के भ्रम का कारण कहा गया है। श्लोक 8 में कहा गया है – “अविद्यायाऽनात्मनि आत्मबुद्धिः तन्मूलं दुःखं त्रिविधं नराणाम्।” अर्थात, अविद्या के कारण आत्मा के स्थान पर अनात्म वस्तुओं में 'मैं' की भावना हो जाती है, और यही त्रिविध दुखों (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) का कारण बनती है। जब तक यह अविद्या बनी रहती है, तब तक जीव संसार में फँसा रहता है। आत्मबोध स्पष्ट करता है कि जैसे सूर्य के प्रकाश में अंधकार मिट जाता है, वैसे ही आत्मज्ञान के प्रकाश में अविद्या का नाश हो जाता है।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने भी बार-बार अविद्या को मोह का कारण बताया है। गीता के अध्याय 5, श्लोक 15 में कहा गया है – “नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥” – भगवान कहते हैं कि परमात्मा न किसी का पाप लेता है, न पुण्य; परंतु ज्ञान अज्ञान से आच्छादित हो जाने के कारण प्राणी मोह को प्राप्त हो जाता है। यहाँ पर स्पष्ट है कि बंधन परमात्मा की ओर से नहीं है, वह जीव की अविद्या का परिणाम है। जब यह अज्ञान दूर होता है, तब ही जीव अपने वास्तविक स्वरूप को जानता है।

ब्रह्मसूत्र में शंकराचार्य ने ‘अविद्या’ को ‘मूल कारण’ के रूप में स्पष्ट किया है। “तदन्यत्वं आरम्भकत्वात्” (ब्रह्मसूत्र 2.1.14) – इस सूत्र के भाष्य में शंकराचार्य कहते हैं कि जीव ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है, यह केवल अविद्या के कारण है, क्योंकि वास्तविकता में कोई भिन्नता नहीं है। जैसे स्वप्न में देखे गये जीव और जगत जाग्रत में मिथ्या सिद्ध होते हैं, वैसे ही यह बंधन भी मिथ्या है, जो केवल अज्ञान के कारण प्रतीत होता है। अद्वैत वेदांत में यह दृढ़ सिद्धांत है कि ब्रह्म ही सत्य है, और जीव-ब्रह्म की भिन्नता केवल अविद्या से उत्पन्न होती है, जो ज्ञान से नष्ट होती है।

दृष्टि-दृश्य-विवेक में अविद्या और ज्ञान के माध्यम से बंधन और मोक्ष की व्याख्या की गई है। ग्रंथ का प्रारंभ ही इस विवेक से होता है – “रूपं दृष्टं लोचनेन, लोचनं दृग्वृत्त्या, सैव दृष्टिः चित्तवृत्त्या, सा दृष्टिः साक्षिणा दृष्टा।” – अर्थात जो कुछ भी देखा जाता है, वह दृष्ट है, और जो देखता है वह साक्षी है। अविद्या यह भ्रम पैदा करती है कि दृग (द्रष्टा) और दृश्य (देखा गया) एक हैं, और जीव स्वयं को दृश्य से एक मान लेता है। यह भ्रांति ही बंधन है। जब यह ज्ञान होता है कि मैं दृश्य नहीं हूँ, मैं साक्षी चैतन्य हूँ, तब मोक्ष प्राप्त होता है।

इस प्रकार अद्वैत वेदांत के सभी प्रमुख ग्रंथों में अविद्या को बंधन का कारण बताया गया है, और आत्मज्ञान को उसका निवारण। जब तक यह अज्ञान बना रहता है, तब तक आत्मा शरीर और मन में बंधी रहती है, और संसार के दुःखों को भोगती है। यह अज्ञान न तो कर्मों से, न पूजा से, न व्रत से मिट सकता है – केवल ब्रह्मविचार, गुरु उपदेश, और आत्मानुभव से ही यह दूर होता है। जैसे गहन अंधकार में केवल दीपक से ही प्रकाश फैलता है, वैसे ही आत्मज्ञान से ही अविद्या नष्ट होती है। जब यह अज्ञान जाता है, तब जीव को अनुभव होता है – “अहम् ब्रह्मास्मि” – मैं ही ब्रह्म हूँ – और यही अनुभव बंधन का अंत और मोक्ष का आरंभ है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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