Total Blog Views

Translate

मंगलवार, 13 मई 2025

"अद्वैत में गुरु-शिष्य परंपरा का महत्त्व"




 "अद्वैत में गुरु-शिष्य परंपरा का महत्त्व" 

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

अद्वैत वेदांत का मूल स्वरूप आत्मा और ब्रह्म की एकता को पहचानना है, और इस गूढ़ सत्य की प्राप्ति के लिए गुरु-शिष्य परंपरा का अत्यंत महत्त्व है। शिष्य के भीतर आत्मज्ञान की जो तीव्र जिज्ञासा (मुमुक्षुत्व) उत्पन्न होती है, वह तब तक दिशा नहीं पाती जब तक उसे योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त न हो। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर गुरु की आवश्यकता पर बल दिया गया है। छान्दोग्य उपनिषद में श्वेतकेतु और उद्दालक के संवाद के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान का हस्तांतरण केवल शास्त्रों से नहीं, अपितु गुरु के द्वारा ही संभव है। "तत्त्वमसि श्वेतकेतो", (छान्दोग्य उपनिषद 6.8.7) — यह महावाक्य गुरु द्वारा शिष्य को उसकी आत्मस्वरूपता का बोध कराता है। जब तक गुरु 'तत्त्वमसि' कहकर शिष्य को उसका ब्रह्मस्वरूप नहीं दिखाता, तब तक वह केवल शब्दों में भटकता रहता है। इस परंपरा में गुरु न केवल बौद्धिक ज्ञान देता है, अपितु वह शिष्य की अंतःकरण शुद्धि, चित्त स्थिरता और आत्मानुभूति के पथ को भी आलोकित करता है।

विवेकचूडामणि में शंकराचार्य स्पष्ट रूप से कहते हैं — "गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्यार्यज्ञानिनः पुनः। शिष्यः स्वगममास्थाय तत्त्वमार्गं समाचरेत्॥" (श्लोक 364)। इसका अर्थ है, यदि गुरु भी अज्ञानवश या अहंकारवश मार्ग से हट जाए, तो शिष्य को अपने विवेक से सत्य के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए। परंतु ऐसे गुरु का चयन करना ही कठिन है जो स्वयं ब्रह्मनिष्ठ, शास्त्रज्ञ और करुणामय हो। इसी ग्रंथ में कहा गया है — "शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्। अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञैस्तत्त्वमात्मनः॥" (श्लोक 60) — अर्थात शास्त्रों के शब्दजाल में चित्त भ्रमित हो सकता है; इसलिए तत्त्वज्ञों के प्रयास से ही आत्मतत्त्व को जाना जा सकता है। यह दर्शाता है कि शास्त्रज्ञान तब तक सार्थक नहीं जब तक वह गुरु के अनुभव और उपदेश से पोषित न हो।

आत्मबोध में शंकराचार्य कहते हैं — "कृत्यं नास्ति मया किंचित् कर्तव्यमपि नास्ति मे। इत्येवं ज्ञानसम्पन्नः स्वतन्त्रः कर्मनैष्ठिकः॥" — यह स्थिति तभी आती है जब गुरु के सान्निध्य में शिष्य के भीतर अहंकार और कर्मबंधन का लोप होता है। आत्मा की पहचान और संसार की मिथ्यात्वबुद्धि तभी जागती है जब गुरु शिष्य को निदिध्यासन की दिशा में प्रवृत्त करता है। गुरु, जो दृष्टा और दृश्य का भेद जानता है, वही शिष्य को "दृग्दृश्यविवेक" का रहस्य समझा सकता है — "दृगयं दर्शने दृष्टं दृश्यं यद्गोचरं ततः। दृश्ये दृश्ये विलीयेते तदेकं दृश्यते दृशः॥" — अर्थात जो देखनेवाला है, वह सदा रहता है, पर जो देखा गया वह बदलता है; गुरु ही इस निरपेक्ष दृष्टा को प्रकट करता है।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं — "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥" (गीता 4.34)। इसका अर्थ है कि तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से विनम्रता, प्रश्न और सेवा द्वारा ज्ञान प्राप्त करो। यहाँ "प्रणिपात", "परिप्रश्न" और "सेवा" — तीनों ही गुरु-शिष्य परंपरा के स्तंभ हैं। केवल पढ़ना या सुनना पर्याप्त नहीं, जब तक शिष्य विनम्र होकर गुरु के समीप रहकर सेवा नहीं करता, तब तक ज्ञान की गंभीरता नहीं उतरती। यही गीता के माध्यम से गुरु-शिष्य संवाद का आदर्श प्रस्तुत होता है, जहाँ श्रीकृष्ण केवल उपदेशक नहीं, अपितु अर्जुन के मनोविकारों का शमन करने वाले साक्षात सद्गुरु हैं।

ब्रह्मसूत्र में भी शास्त्रों और गुरु की आवश्यकता को पुष्ट किया गया है — "शास्त्रयोनित्वात्" (सूत्र 1.1.3)। अर्थात ब्रह्म का यथार्थ ज्ञान शास्त्र और अनुभवी गुरु के द्वारा ही संभव है। केवल तर्क और अनुभव पर आधारित ज्ञान में सीमाएँ हैं; गुरु ही शास्त्रों का यथार्थ अर्थ प्रकट करता है। ब्रह्मसूत्र भाष्य में शंकराचार्य बार-बार कहते हैं कि केवल श्रवण या वाक्य सुनने मात्र से आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक वह गुरु की कृपा से मन में पूर्णरूपेण स्थापित न हो। गुरु ही शिष्य की जिज्ञासा को उपयुक्त दिशा देता है, और उसके अज्ञान रूपी तमस को काटता है।

दृष्टि-दृश्य-विवेक में गुरु के माध्यम से यह विवेक उत्पन्न होता है कि दृश्य वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं, परंतु दृष्टा, जो आत्मा है, वह अपरिवर्तनीय है। "साक्षिणः सदा साक्षित्वे स्फुरतोऽप्यात्मनोऽर्थवत्। दृष्ट्यभावेऽपि सत्तास्य न लभ्येत कदाचन॥" — अर्थात आत्मा सदा साक्षी है, चाहे दृश्य हो या न हो। यह ज्ञान केवल गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त होता है। वह शिष्य को ध्यान, विवेक, वैराग्य और अंतःकरण की शुद्धि का अभ्यास कराकर आत्मा की ओर उन्मुख करता है। गुरु ही वह सेतु है जो सीमित से असीमित की यात्रा संभव बनाता है।

अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि अद्वैत वेदांत में गुरु-शिष्य परंपरा केवल एक सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि वह आध्यात्मिक ऊर्जा की वह धारा है जो आत्मा को उसके ब्रह्मस्वरूप तक पहुँचाती है। गुरु, एक ओर शिष्य को ज्ञान देता है, तो दूसरी ओर उसके अंदर छिपे अविद्या के आवरण को हटाता है। उपनिषदों से लेकर ब्रह्मसूत्र तक, गीता से लेकर आत्मबोध तक, हर ग्रंथ इस परंपरा की महत्ता को उद्घाटित करता है। जब तक योग्य गुरु के माध्यम से शिष्य को श्रवण, मनन और निदिध्यासन की साधना प्राप्त नहीं होती, तब तक अद्वैत की अनुभूति केवल एक कल्पना मात्र बनी रहती है। इसलिए यह परंपरा न केवल जीवित रहनी चाहिए, बल्कि उसमें आस्था, समर्पण और श्रद्धा के साथ आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि वही मोक्ष का द्वार खोलती है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

"You can read this blog in any language. All you need to do is click on the translate button provided at the top left corner of the page. By clicking it, you can read it in your preferred language."

आप इस ब्लॉग को किसी भी भाषा में पढ़ सकते हैं आपको बस इतना करना है कि पेज के ऊपर बायें हिस्से में ट्रांसलेट का बटन दिया गया है। आप उसे क्लिक कर के अपनी मनपसंद भाषा में इसे पढ़ सकते हैं।


Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.