"आधुनिक संसार में वेदांतमय जीवन"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आधुनिक युग में जीवन की गति तीव्र हो गई है। भौतिक प्रगति के बावजूद मनुष्य भीतर से अशांत, असंतुष्ट और भ्रमित अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में वेदांत का ज्ञान, जो आत्मा और ब्रह्म की एकता की शिक्षा देता है, अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है। उपनिषदों में कहा गया है—
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” (तैत्तिरीय उपनिषद 2.1.1)
अर्थात सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप ही ब्रह्म है। यह ज्ञान व्यक्ति को उसकी असली पहचान कराता है और उसे आत्मा के शुद्ध, नित्य, और अविनाशी स्वरूप से परिचित कराता है। आधुनिक मनुष्य की समस्याओं का मूल कारण यह है कि वह अपने को देह, मन और बुद्धि के स्तर तक सीमित कर चुका है, जबकि वेदांत बताता है कि ये सब नश्वर हैं और सच्चा "मैं" इन सबसे परे है। आत्मबोध में शंकराचार्य कहते हैं—
“अहमकर्ता न भोक्तास्मि गुणहीनः शिवः स्मृतः।”
अर्थ: मैं न कर्ता हूँ, न भोक्ता; मैं तो निर्गुण, शुद्ध चैतन्य शिवस्वरूप हूँ। जब मनुष्य इस ज्ञान में स्थित होता है, तो वह बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता और भीतर स्थिर रहता है।
आज के समाज में जहाँ भोगवाद, प्रतिस्पर्धा और अंधाधुंध उपभोग की प्रवृत्ति प्रबल है, वहाँ विवेक और वैराग्य की आवश्यकता और अधिक हो जाती है। शंकराचार्य विवेकचूडामणि में कहते हैं—
“दुर्लभं त्रयमेवैतद्दैवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥”
अर्थ: मनुष्य जीवन, मुक्ति की तीव्र इच्छा और सद्गुरु की संगति—ये तीनों दुर्लभ हैं और केवल ईश्वर की कृपा से प्राप्त होते हैं। जब इनका लाभ मिलता है, तब जीवन में विवेक (नित्य-अनित्य का भेद) जाग्रत होता है। आधुनिक जीवन में यदि हम विवेक का प्रयोग करें, तो भौतिक आकर्षणों के जाल से बच सकते हैं। गीता में भी भगवान कहते हैं—
“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।” (गीता 2.16)
अर्थ: जो असत् है उसका अस्तित्व नहीं है, और जो सत् है उसका अभाव नहीं होता। यह विवेक का मूल है—अस्थायी वस्तुओं में स्थायित्व की खोज न कर, शाश्वत आत्मा की ओर मन लगाना।
वेदांत जीवन केवल वैराग्यपूर्ण जीवन नहीं है, बल्कि सजग, समर्पित और जागरूक जीवन है। ब्रह्मसूत्र (1.1.1) का प्रारंभ ही “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” से होता है, जो बताता है कि अब ब्रह्म की जिज्ञासा होनी चाहिए। यह "अब" तभी आता है जब संसार के अनुभवों से व्यक्ति थक जाता है और परम सत्य की खोज करता है। आधुनिक व्यक्ति इस "अब" की अवस्था में है—क्योंकि वह भौतिक उपलब्धियों के बाद भी रिक्त अनुभव करता है। वेदांत उसे यह ज्ञान देता है कि यह रिक्तता केवल ब्रह्मज्ञान से ही भर सकती है। दृष्टि-दृश्य-विवेक में कहा गया है—
“दृश्यं नाशं उपेत्येति दृष्टा तिष्ठति केवलः।”
अर्थ: दृश्य वस्तुएँ नष्ट हो जाती हैं, परंतु दृष्टा आत्मा शुद्ध और एकमेव रहती है। जब व्यक्ति भीतर के साक्षीभाव को पहचानता है, तब वह व्यर्थ की भागदौड़ से मुक्त होता है और जीवन में स्थिरता आती है।
वेदांत यह नहीं कहता कि संसार त्याग दो, बल्कि यह सिखाता है कि संसार में रहते हुए भी आसक्ति का त्याग करो। गीता में अर्जुन को कर्म करने का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं—
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” (गीता 2.47)
अर्थ: तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फलों में नहीं। यह कर्मयोग वेदांत की व्यावहारिक शाखा है, जो आधुनिक जीवन में अत्यंत उपयुक्त है। जब व्यक्ति फल की अपेक्षा से मुक्त होकर अपने कर्तव्यों को ईश्वरार्पण भाव से करता है, तो वह तनाव और चिंता से मुक्त हो जाता है। यह जीवन की योग्यता नहीं, उसकी पवित्रता में विश्वास करता है। आत्मबोध में कहा गया है—
“यस्मिन्नस्थितमात्रेण देहादिविलक्षणं।
तिष्ठत्येकोऽवशिष्टोऽयं ज्ञानं तद्ब्रह्म लक्ष्यते॥”
अर्थ: जिस ज्ञान में स्थित होकर देहादि का भेद मिट जाता है और केवल आत्मा शेष रहती है—वही ब्रह्म है। यह ज्ञान ही जीवन का परम उद्देश्य बन जाए, तो प्रत्येक कार्य साधना बन जाता है।
आधुनिक जीवन में व्यस्तता, तनाव, सामाजिक अपेक्षाएँ और भौतिक उपलब्धियों का दबाव बढ़ गया है। ऐसे समय में ध्यान, आत्मनिरीक्षण और नित्य ब्रह्मचिंतन ही शांति और संतुलन का मार्ग हैं। उपनिषदों में कहा गया है—
“शान्तं शिवं अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।” (माण्डूक्य उपनिषद् 7)
अर्थ: जो शांत, शिवस्वरूप, अद्वैत और चतुर्थ अवस्था है—वही आत्मा है, जिसे जानना चाहिए। इस आत्मा को जानने की प्रक्रिया ही वेदांतमय जीवन है। यह जीवन केवल संन्यासियों के लिए नहीं, बल्कि प्रत्येक गृहस्थ, व्यवसायी, और सामाजिक प्राणी के लिए भी है। वेदांत यह सिखाता है कि कैसे सांसारिक कर्तव्यों में रहते हुए भी आत्मा में स्थित रहा जा सकता है। यह जीवन को साधन बनाकर साध्य तक पहुँचने की कला है। आधुनिक युग के लिए यह सबसे उपयुक्त दृष्टिकोण है—जहाँ भागदौड़ के बीच भी भीतर ब्रह्म की शांति को अनुभव किया जा सके।
इस प्रकार, वेदांत केवल दर्शन नहीं है, बल्कि एक जीने की शैली है—एक ऐसा दृष्टिकोण जो जीवन की क्षणभंगुरता में भी चिरंतन सत्य को पहचानने की दृष्टि देता है। यह जीवन को त्यागकर नहीं, बल्कि जागकर जीने की प्रेरणा देता है। विवेकचूडामणि में कहा गया है—
“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।”
अर्थ: ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव और ब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं है। जब यह ज्ञान आत्मसात होता है, तब जीवन स्वतः ही वेदांतमय हो जाता है—न तो उसमें भोग की अंधी दौड़ होती है, न त्याग का झूठा दिखावा, बल्कि होती है केवल शुद्धता, साक्षीभाव और चैतन्य में स्थित रहकर कर्तव्यों का निर्वहन। यही आधुनिक युग में वेदांत का वास्तविक योगदान है—भीतर जागृति, बाहर संतुलन और अंत में मुक्ति।