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गुरुवार, 15 मई 2025

"आत्मिक जागरूकता बनाए रखने के उपाय"


 "आत्मिक जागरूकता बनाए रखने के उपाय"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले साधक के लिए आत्मिक जागरूकता बनाए रखना एक निरंतर साधना है, जो केवल सैद्धांतिक ज्ञान से नहीं, बल्कि नियमित अभ्यास, सतत अनुशीलन और मनोयोग से ही संभव होती है। उपनिषदों में बार-बार यह निर्देश दिया गया है कि आत्मा का साक्षात्कार केवल अध्ययन से नहीं, वरन् ध्यान, वैराग्य, विवेक और चित्तशुद्धि से होता है। कठोपनिषद में कहा गया है – “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वṛणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥” (कठोपनिषद् 1.2.23) अर्थात् यह आत्मा न तो प्रवचन से, न मेधा से, न बहुत श्रवण से प्राप्त होती है; यह उसी को प्राप्त होती है, जिसे यह स्वयं प्राप्त करना चाहता है। अतः आत्मिक जागरूकता का रहस्य एकमात्र अभ्यास में निहित है, जहां मन को विषयों से हटाकर निरंतर ब्रह्मतत्त्व की ओर उन्मुख किया जाता है।

‘विवेकचूड़ामणि’ में आदिशंकराचार्य ने आत्मस्मृति को ही परम साधन माना है। वह कहते हैं – “सत्त्वे नष्टे नष्टं भवति भुवनं शश्वदप्रत्ययं यत्।” अर्थात् जब अंतःकरण की सात्त्विकता नष्ट होती है, तो जगत का अप्रमाणिक स्वरूप प्रकट होता है। इसलिए साधक को निरंतर अपने अंतःकरण को शुद्ध रखने हेतु सतत साधना में प्रवृत्त रहना चाहिए। आत्मिक जागरूकता बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण अभ्यास ‘निदिध्यासन’ है – जो आत्मज्ञान के विषय में गहन चिंतन है। आत्मबोध में कहा गया है – “ज्ञानं विनाशं यान्त्येव निदिध्यासनवर्जिताः।” अर्थात् जो केवल श्रवण और मनन करके रह जाते हैं, और निदिध्यासन नहीं करते, उनका ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। अतः अभ्यास के स्तर पर आत्मिक जागरूकता हेतु यह अभ्यास अत्यंत आवश्यक है।

गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से कहते हैं – “अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।” (गीता 6.35)। अर्थात् हे अर्जुन! यह चंचल मन अभ्यास और वैराग्य से ही नियंत्रित होता है। मन को स्थिर करने और आत्मा में स्थिर रखने का अभ्यास ‘एकनिष्ठ ध्यान’ के रूप में किया जा सकता है, जिसमें निरंतर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ या ‘सोऽहम्’ भावना का स्मरण होता है। इस अभ्यास को ‘अहं-ग्रह ध्यान’ कहा जाता है, जो दृष्टि और दृष्टा के भेद को स्पष्ट करता है। ‘दृग्दृष्टिविवेक’ में कहा गया है – “दृग्योन्यत्वं दृष्टवस्तु दृष्टयोः भेदो न युक्तः।” अर्थात् दृष्टा और दृश्य में भेद करना ही विवेक है। यही अभ्यास साधक को जागरूकता में स्थिर करता है।

ब्रह्मसूत्रों में भी यह बताया गया है कि आत्मा को केवल ज्ञान से नहीं, बल्कि ‘अनुभवात्मक ज्ञान’ से ही जाना जा सकता है। ब्रह्मसूत्र (1.1.4) में कहा गया है – “तत्त्वस्य प्रयोजनिकत्वात्।” अर्थात् ब्रह्मज्ञान का प्रयोजन केवल जानना नहीं, अपितु उसका अनुभव और आत्मा में स्थिरता है। इसके लिए साधक को नियमित ध्यान, आत्मचिंतन, शास्त्रों के स्वाध्याय और गुरु के सान्निध्य में रहकर अभ्यास करते रहना चाहिए। यह जागरूकता तभी संभव है जब साधक मन, इंद्रियों और बुद्धि को संयमित रखते हुए सतत आत्मा में प्रतिष्ठित रहने का प्रयास करे। शंकराचार्य जी ने ‘विवेकचूडामणि’ में स्पष्ट रूप से कहा है – “वासनात्यागो मोक्षस्य प्रथमं द्वारमीरितम्।” अर्थात् वासनाओं का त्याग ही मुक्ति का प्रथम द्वार है। और वासनाओं का त्याग निरंतर आत्मिक जागरूकता के अभ्यास से ही होता है।

दैनिक जीवन में आत्मिक जागरूकता बनाए रखने हेतु कुछ व्यावहारिक अभ्यास अत्यंत उपयोगी हैं। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर आत्मचिंतन, शुद्ध आहार, सत्संग, मौन का पालन, मन की निगरानी, और प्रत्येक कार्य में साक्षीभाव से स्थित रहना अत्यंत प्रभावी साधन हैं। आत्मबोध ग्रंथ में कहा गया है – “शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्कलं निष्प्रपञ्चकम्। नित्यं मुक्तं निराकारं आत्मानं मनसा स्मरेत्॥” अर्थात् साधक को नित्य आत्मा का स्मरण करना चाहिए, जो शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, निराकार और सदा मुक्त है। यह स्मरण साधक को विषयासक्ति से बचाकर चैतन्य में स्थिर करता है। साथ ही, दिन में कुछ समय मौन साधना और ‘नेति-नेति’ के अभ्यास से भी चित्त शुद्ध होता है और आत्मिक जागरूकता सुदृढ़ होती है।

अंततः, आत्मिक जागरूकता कोई क्षणिक अनुभव नहीं, बल्कि सतत अभ्यास से विकसित होने वाली एक जागरूक अवस्था है, जिसमें साधक हर क्षण आत्मा के साथ जुड़ा रहता है। यह जुड़ाव केवल ध्यान में ही नहीं, बल्कि व्यवहार में, बोलचाल में, विचार में और जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप में प्रकट होता है। उपनिषदों में इसे ‘ब्रह्मवित् ब्रह्मैव भवति’ कहा गया है – अर्थात् जो ब्रह्म को जानता है, वही ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। यह स्थिति प्राप्त करने के लिए अभ्यास, शुद्धता, श्रद्धा, वैराग्य और ब्रह्मचिंतन को जीवन में स्थायी स्थान देना अनिवार्य है। यही निरंतर आत्मिक जागरूकता का सार है, जो मोक्ष के पथ पर साधक को अविचलित गति से अग्रसर करता है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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