"भौतिक आसक्ति और इच्छाओं पर विजय"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
भौतिक संसार में जीव आत्मा का अनादि बंधन उसकी वासनाओं और इच्छाओं के कारण है। उपनिषदों में कहा गया है कि जब तक जीव इंद्रियों द्वारा प्राप्त सुखों में आसक्त रहता है, तब तक वह अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। कठोपनिषद (1.2.1) में यम कहते हैं — "परञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरत्मन्।" अर्थात् ब्रह्मा ने इंद्रियों को बाहर की ओर प्रवृत्त कर दिया है, इसीलिए जीव बाह्य विषयों की ओर देखता है, न कि अपने भीतर के आत्मा की ओर। जब तक यह दृष्टि बाहर की ओर है, तब तक भोगों की इच्छा और उनसे उत्पन्न आसक्ति जीवन को जकड़े रहती है। विवेकचूड़ामणि में शंकराचार्य कहते हैं — "मोक्षस्य न हि हेतुः अन्यः विकल्पितवस्तुनि।" अर्थात् मुक्ति के लिए केवल नित्य–अनित्य का विवेक ही कारण है, अन्य कोई उपाय नहीं। इच्छाओं की निरंतरता व्यक्ति को विकल्पों में उलझाए रखती है, जिससे वह सत्य की प्राप्ति से दूर रहता है।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा — "त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥" (गीता 16.21)। यह स्पष्ट रूप से बताता है कि काम, क्रोध और लोभ आत्मा के पतन के कारण हैं, अतः इन्हें त्यागना चाहिए। इच्छाओं का मूल कारण है "काम" – जो मन में सुख की कल्पना से उत्पन्न होता है। आत्मबोध में शंकराचार्य लिखते हैं — "वासनानामयं देहो वासनामात्रसंभवः। वासनातीतता विद्या तत्संन्यासो हि मुच्यते॥" — यह शरीर वासनाओं से बना है और उन्हीं से चलता है। जब वासनाएँ तिरोहित होती हैं, तब ही ज्ञान संभव है। अतः वासनाओं से परे जाना ही वास्तविक संन्यास है। यह ज्ञान ही मुक्ति की कुंजी है। इच्छाओं को समझदारी से देखने का विवेक और उनसे मुक्ति पाने का प्रयास आत्म-साक्षात्कार की दिशा में सबसे पहला कदम है।
ब्रह्मसूत्र में कहा गया है — "तदन्यत्वं सर्ववेदवदितत्वात्।" (ब्रह्मसूत्र 1.1.4), अर्थात् आत्मा किसी भी भौतिक वस्तु से भिन्न है, यह सभी वेदों ने कहा है। इस प्रकार, जो वस्तुएँ नश्वर हैं, परिवर्तनशील हैं, वे आत्मा नहीं हो सकतीं। किंतु जीव उन वस्तुओं में सुख खोजने की भूल करता है। यह भ्रांति इच्छाओं की नींव है। दृष्टिदृश्यविवेक कहता है — "दृश्यं ज्ञानमयं किंचिद् दृश्यं ज्ञानविलक्षणम्।" — दृश्य जगत ज्ञान के विपरीत है, और इसे देखनेवाला आत्मा है। जब तक हम दृश्य में रमण करते हैं, हम आत्मा को भूल जाते हैं। यह विस्मृति ही इच्छाओं को जन्म देती है, क्योंकि हम बाह्य वस्तुओं में पूर्णता खोजने लगते हैं। वास्तविक सुख आत्मा में है, न कि बाह्य जगत में।
विवेकचूड़ामणि में वर्णित है — "यस्मिन् दृष्टे न पुनर्दर्शनम् यः प्राप्य न पुनराप्यः।" अर्थात् वह जिसे एक बार प्राप्त कर लिया जाए तो पुनः पाने की आवश्यकता नहीं रहती — वही ब्रह्म है। लेकिन इच्छाएँ व्यक्ति को बार-बार संसार की वस्तुओं की ओर खींचती हैं, जो अपूर्ण हैं, अस्थायी हैं। यह चित्त की चंचलता और असंतोष का परिणाम है। श्री शंकराचार्य कहते हैं — "कामादिदोषसम्भूता दुःखसंघातहेतवः।" — काम, क्रोध आदि दोष ही दुखों का कारण हैं। जब तक व्यक्ति इनसे ग्रस्त है, तब तक न उसे आत्मा का ज्ञान होता है और न ही आत्मा की शांति प्राप्त होती है। इच्छाओं पर विजय तभी संभव है जब व्यक्ति आत्मा को अपने सत्य रूप में अनुभव करे — नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप में।
उपनिषदों में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि आत्मा अचिंत्य, अव्यक्त और निरवयव है। मुण्डकोपनिषद् (2.2.2) में कहा गया है — "नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वṛṇुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥" — आत्मा को न तो प्रवचन से, न विद्वता से, और न ही अधिक श्रवण से प्राप्त किया जा सकता है। जिसे आत्मा स्वयं चुनता है, उसे ही आत्मा अपना स्वरूप प्रकट करता है। इसका अभिप्राय है कि केवल ज्ञान या अध्ययन पर्याप्त नहीं, बल्कि अंतःकरण की निर्मलता आवश्यक है। इच्छाओं और भौतिक आकर्षणों का त्याग उस निर्मलता का मूल है। आत्मबोध के श्लोक — "शमादिषट्कसम्पन्नः कर्तव्यो मोक्षसाधनम्।" — से यह स्पष्ट होता है कि शम (मन का निग्रह), दम (इंद्रियों का निग्रह) आदि गुणों का विकास ही मोक्ष का साधन है, और इन गुणों का विकास इच्छाओं पर विजय पाने से ही संभव है।
अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भौतिक इच्छाएँ और आसक्तियाँ आत्मा के वास्तविक स्वरूप को ढक देती हैं। उन्हें त्यागने के लिए केवल संन्यास लेना ही आवश्यक नहीं, बल्कि निरंतर आत्मचिंतन, विवेक, ध्यान और ब्रह्मचिन्तन करना आवश्यक है। जब व्यक्ति विवेकपूर्वक समझता है कि नश्वर वस्तुओं में सुख नहीं, और अपनी चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करता है, तब वह आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर आगे बढ़ता है। जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है — "यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥" (गीता 2.58), अर्थात् जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जो व्यक्ति इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर भीतर केंद्रित कर लेता है, वही स्थितप्रज्ञ होता है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में इच्छाओं पर विजय पाने की दिशा में अग्रसर होता है और ब्रह्म की प्राप्ति कर पाता है।