"आत्मसाक्षात्कार का अंतिम चरण “खोज का अंत और होने की शुरुआत”
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अद्वैत वेदांत की दृष्टि से आत्मसाक्षात्कार का अंतिम चरण “खोज का अंत और होने की शुरुआत” है। जब साधक ज्ञान के पथ पर चलता है, तो प्रारंभ में वह आत्मा की खोज में विभिन्न साधनों और विधियों का सहारा लेता है। यह खोज उसे बाह्य संसार से अंतर्मुखी बनाती है। धीरे-धीरे उसे यह बोध होता है कि वह जिसे खोज रहा है, वह पहले से ही उसके भीतर विद्यमान है। उपनिषदों में इसी सत्य को स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि आत्मा कोई बाह्य वस्तु नहीं, बल्कि स्वप्रकाश चैतन्य है। विवेकचूडामणि में स्पष्ट किया गया है कि जब तक यह भ्रांति बनी रहती है कि आत्मा शरीर, मन या इंद्रियों से पृथक कोई वस्तु है, तब तक साधक अनावश्यक प्रयास करता रहता है। लेकिन जब यह भ्रांति समाप्त होती है, तब उसकी खोज समाप्त हो जाती है और वह सहजता से 'स्वरूप' में स्थित हो जाता है।
वास्तविकता यह है कि खोज ही स्वयं एक मिथ्या धारणा पर आधारित होती है — यह मानना कि कुछ प्राप्त करना है। आत्मबोध ग्रंथ इस भ्रम को समाप्त करने में सहायक होते हैं। यह बोध होता है कि जो कुछ प्राप्त करना था, वह पहले से ही सिद्ध है; केवल अज्ञान के कारण उसकी अनुभूति नहीं हो रही थी। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है — वह सदा है। यह ज्ञान जब पूर्ण रूप से अंत:करण में उतरता है, तब साधक की यात्रा का अंत नहीं, बल्कि एक नए अनुभव का आरंभ होता है — 'होने' का अनुभव। यह 'होना' क्रिया नहीं है, न ही कोई मानसिक प्रयास, बल्कि यह सहज स्थिति है जिसमें 'मैं' और 'तू' का भेद मिट जाता है। ब्रह्मसूत्र भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं — नानात्व केवल अविद्या का परिणाम है।
दृगदृश्यविवेक इस अंतर को बहुत सूक्ष्मता से उद्घाटित करता है — देखने वाला और देखा गया भिन्न हैं। जब यह बोध होता है कि सब दृश्य वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं और केवल दृष्टा ही अपरिवर्तित है, तब साधक उस दृष्टा में स्थित हो जाता है। यही स्थिरता 'होने' की अवस्था है। यह कोई मानसिक अभिप्राय नहीं बल्कि अनुभव की गहराई है। पहले साधक यह सोचता है कि उसे ध्यान करना है, मन को नियंत्रित करना है, इंद्रियों को संयमित करना है — पर जब हो जाना प्रकट होता है, तब कोई साधना शेष नहीं रह जाती। वहाँ केवल साक्षित्व की स्थिति रह जाती है। विवेकचूडामणि में इसी स्थिति को “निश्शेष विकल्प शून्यता” कहा गया है — जहाँ सभी विकल्प समाप्त हो जाते हैं और केवल चैतन्य का प्रकाश रह जाता है।
उपनिषदों में इस अनुभव को “पूर्णता” के रूप में वर्णित किया गया है — जहाँ न कोई कर्ता बचता है, न भोक्ता, न कोई कर्म। आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है और समस्त द्वंद्वों से परे हो जाती है। यह स्थिति कोई उपलब्धि नहीं है, क्योंकि यह सदा से थी; केवल इसके अज्ञान का नाश हुआ है। जब साधक इस सत्य को गहराई से अनुभव करता है, तो उसके समस्त प्रयास शांत हो जाते हैं। वहाँ कोई अभ्यास, कोई लक्ष्य नहीं बचता। ब्रह्मसूत्रों में कहा गया है कि जब ज्ञान उत्पन्न होता है तो अज्ञान से उत्पन्न समस्त बंधन नष्ट हो जाते हैं। यह बंधन न तो वास्तविक थे, न ही स्थायी; वे केवल उपाधियों से उत्पन्न भ्रम थे। अतः ज्ञान की परिपक्वता ही साधक को 'होने' की अवस्था में लाती है।
आत्मबोध में बताया गया है कि आत्मा केवल ज्ञाता नहीं है, वह साक्षात ज्ञानस्वरूप है। इसलिए जब साधक पूर्णतः आत्मा में स्थित हो जाता है, तब वह कोई बाहरी कर्तव्य नहीं निभाता; उसका जीवन स्वयं ब्रह्म का प्रतिबिंब बन जाता है। ऐसा जीवन खोज से मुक्त होता है, प्रश्नों से रहित होता है, और किसी उद्देश्य से परे होता है। वह जीवन ‘पूर्णता’ है। विवेक के माध्यम से साधक को यह बोध होता है कि जो कुछ वह खोज रहा था, वह खोज स्वयं मिथ्या थी। 'होना' ही उसकी स्वाभाविक स्थिति है। जैसे आकाश को कहीं जाना नहीं होता, वैसे ही आत्मा को कुछ पाना नहीं होता — वह स्वयंसिद्ध है।
अंततः वेदांत हमें वहाँ ले जाता है जहाँ कोई यात्रा नहीं है, कोई साधना नहीं है, कोई द्वंद्व नहीं है। वहाँ केवल मौन है — ज्ञान का, अस्तित्व का, चैतन्य का। वहाँ न कोई खोजकर्ता है, न ही कोई खोज — केवल होना ही शेष रह जाता है। यही 'खोज का अंत और होने की शुरुआत' है — जहाँ जिज्ञासा मिट जाती है, और ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाता है। यह अद्वैत का अंतिम उपहार है — पूर्ण मौन में स्थित होना। यही जीवन की परम उपलब्धि है, और यही आत्मा का सहज, अनादि, अविनाशी स्वरूप है।