"वेदांत की आध्यात्मिक साधना में जप और मंत्र की भूमिका"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वेदांत के साधना मार्ग में जप और मंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि वेदांत का अंतिम उद्देश्य आत्मा और ब्रह्म की एकता का साक्षात्कार करना है, परंतु इस अनुभव की ओर अग्रसर होने के लिए मन को एकाग्र और शुद्ध करना आवश्यक होता है, और यह कार्य जप और मंत्र के माध्यम से अत्यंत प्रभावी रूप से संपन्न होता है। उपनिषदों में मंत्र को ब्रह्म का प्रतीक माना गया है—"ओं इत्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव" (माण्डूक्योपनिषद् 1)। इसका अर्थ है कि "ओं" यह एक अक्षर ही समस्त भूत, वर्तमान और भविष्य का द्योतक है; यह स्वयं ब्रह्म है। जप का कार्य इस "ओं" या अन्य वैदिक मंत्रों का निरंतर उच्चारण है, जिससे साधक के मन में स्थिरता आती है और वह आत्मा की ओर उन्मुख होता है। विवेकचूडामणि में शंकराचार्य लिखते हैं—"जप्येन तु जपः शुद्धिर्भवति नात्र संशयः" अर्थात् जप के माध्यम से मन की शुद्धि होती है, इसमें कोई संशय नहीं।
आत्मबोध ग्रंथ में शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि जब तक मन विषयों की ओर आकर्षित रहता है, तब तक आत्मसाक्षात्कार असंभव है। वे लिखते हैं—"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धाय विषयासक्तं मुक्तं निर्विषयं स्मृतम्॥" (आत्मबोध 8)। यहाँ मंत्रजप की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि जप के माध्यम से मन को विषयों से हटाकर एक ही ध्वनि पर केंद्रित किया जाता है, जिससे उसका चंचलपन कम होता है। यह मन को वैराग्य और एकाग्रता की दिशा में प्रेरित करता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—"यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" (गीता 10.25), अर्थात् "मैं यज्ञों में जपयज्ञ हूँ।" इसका तात्पर्य यह है कि सभी यज्ञों में सबसे श्रेष्ठ जपयज्ञ है क्योंकि यह आंतरिक और स्थायी होता है। जप के माध्यम से साधक धीरे-धीरे अपने अहं को त्याग कर आत्मा के स्वरूप की ओर अग्रसर होता है।
ब्रह्मसूत्र में भी मंत्र और उपासना की महत्ता को स्पष्ट रूप से बताया गया है। "तद्वचनादेव च" (ब्रह्मसूत्र 3.3.45) इस सूत्र के अनुसार शास्त्रों के वचन ही साधना के प्रमाण हैं और उपासना (मंत्रजप सहित) का समर्थन करते हैं। मंत्र को केवल शब्द न मानकर उसका चिंतन करते हुए जप करने से वह मन में स्थायी प्रभाव उत्पन्न करता है। दृष्टि-दृश्य विवेक में भी कहा गया है कि "मनः प्रबोधनं विना न मोक्षः" – अर्थात जब तक मन का प्रबोधन नहीं होता, तब तक मोक्ष संभव नहीं है। मंत्रजप मन को निरंतर ब्रह्म की ओर स्मरण कराता है, जिससे उसमें वैराग्य, विवेक और उपशमन जैसे शमादि षट्सम्पत्ति का विकास होता है। इसके बिना आत्मज्ञान की स्थिति में स्थायित्व संभव नहीं। इस प्रकार जप न केवल प्रारंभिक साधन है बल्कि ज्ञान के मार्ग पर दृढ़ता प्रदान करने वाला आधार भी है।
विवेकचूडामणि में बार-बार यह कहा गया है कि ज्ञान से पहले मन की शुद्धि आवश्यक है। "चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये। वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मकोटिभिः॥" अर्थात् कर्म (जप सहित) का उद्देश्य चित्त की शुद्धि है, वस्तु (ब्रह्म) की सिद्धि केवल विचार (विवेक) से होती है, कर्म के करोड़ों प्रयोगों से नहीं। परंतु यह विचार तभी फलदायी होता है जब मन एकाग्र हो, और यह एकाग्रता जप से प्राप्त होती है। जब साधक "ॐ" या "सोऽहम्" जैसे महावाक्यात्मक मंत्रों का जप करता है, तब वह धीरे-धीरे अपनी देह, मन और बुद्धि की सीमाओं से परे जाने लगता है। यह जप उसे आत्म-स्वरूप की स्मृति में स्थिर करता है, जिससे वह अद्वैत की अनुभूति में प्रविष्ट होता है। जप के द्वारा ब्रह्मविचार में एक निरंतरता आती है, जो अंततः ध्यान और समाधि का कारण बनती है।
उपनिषदों में यह भी कहा गया है कि "नायमात्मा प्रवचनेंन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वṛणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥" (कठोपनिषद् 1.2.23)। अर्थात आत्मा न तो प्रवचन से, न मेधा से और न ही बहुत श्रवण से प्राप्त होता है, बल्कि वह उसी को प्राप्त होता है जिसे वह स्वयं प्राप्त करना चाहता है। यह ‘वरण’ – चुनना, अर्थात पूर्ण समर्पण – जप की साधना में परिपूर्ण रूप से प्रकट होता है। जप वह आंतरिक संवाद है जिसमें साधक निरंतर अपने को ईश्वर या ब्रह्म को अर्पित करता है। यह आत्म-निवेदन ही अंततः आत्मा के वास्तविक रूप को उद्घाटित करता है। जब जप केवल उच्चारण नहीं रह जाता, बल्कि भावना और अनुभव का माध्यम बनता है, तब यह द्वैत को मिटाकर अद्वैत की स्थिति में प्रवेश कराता है। जप साधक के जीवन को तपस्या, शुद्धता और श्रद्धा का रूप दे देता है।
अंततः, जप और मंत्र वेदांत की साधना का आवश्यक चरण हैं। यद्यपि वेदांत आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति की ओर प्रेरित करता है, परंतु इस अनुभूति तक पहुँचने के लिए साधक को मनःशुद्धि, एकाग्रता और ब्रह्मविचार की आवश्यकता होती है। यह सब जप के निरंतर अभ्यास से संभव होता है। भगवद्गीता में अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं—"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥" (गीता 8.14)। जो निरंतर एकाग्रचित होकर जपपूर्वक ईश्वर का स्मरण करता है, उसके लिए भगवान सहज सुलभ हो जाते हैं। जप वह सेतु है जो मनुष्य को विषयों से हटाकर ब्रह्म की ओर ले जाता है। यह सेतु ही साधक को अन्तःकरण की शुद्धि और आत्मसाक्षात्कार की दिशा में दृढ़ता से अग्रसर करता है।