“वेदान्त में ध्यान द्वारा मन और इन्द्रियों का नियंत्रण”
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वेदान्त में आत्म-साक्षात्कार की साधना का मूल आधार मन और इन्द्रियों का नियंत्रण है। जब तक मन विक्षिप्त है और इन्द्रियाँ विषयों की ओर आकृष्ट होती रहती हैं, तब तक आत्मज्ञान का प्रकाश नहीं हो सकता। उपनिषदों में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धाय विषयाꣳ सङ्गो, मुक्तैर्निर्विषयं मनः॥" (अमृतबिन्दु उपनिषद्) — अर्थात मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण उसका मन ही है। विषयों में आसक्त मन बंधन का कारण बनता है और जो मन विषयों से रहित हो गया है वह मुक्ति का द्वार खोलता है। ध्यान (ध्यानयोग) इस विषयगत मन को निर्विषयी बनाने की प्रक्रिया है, जिसमें साधक अपने चित्त को अंतर्मुख करता है और ब्रह्मस्वरूप आत्मा पर स्थित करने का अभ्यास करता है। ध्यान से चित्त शुद्ध होता है और शुद्ध चित्त में ही आत्मतत्त्व का साक्षात्कार सम्भव होता है। अतः ध्यान का अभ्यास केवल मानसिक शांति के लिए नहीं, वरन् आत्मज्ञान की उपलब्धि के लिए किया जाता है।
विवेकचूडामणि में आदिशंकराचार्य स्पष्ट रूप से कहते हैं — "मनसैव हि संसारः, मनसैव विमुच्यते।" (विवेकचूडामणि श्लोक 171) — अर्थात मन से ही संसार की अनुभूति होती है और मन से ही उसकी निवृत्ति भी होती है। यदि मन विषयों की ओर आकृष्ट हो तो वही बन्धन है और यदि वह आत्मा में स्थिर हो जाए तो मुक्ति का कारण बन जाता है। ध्यान का अभ्यास इस मन को आत्मा में स्थित करने की साधना है। जब ध्यान के द्वारा मन बार-बार आत्मतत्त्व में स्थित होता है, तब वह धीरे-धीरे विषयों के प्रति अपनी आसक्ति को त्याग देता है। आत्मबोध में भी शंकराचार्य कहते हैं — "यदा वियोगं विषयेषु योगं ब्रह्मणि यच्छति। तदा सम्यग्विजानाति ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या॥" (आत्मबोध श्लोक 14) — जब मन विषयों से हटकर ब्रह्म में लीन हो जाता है, तभी साधक को यह बोध होता है कि ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या है। इसीलिए ध्यान का उद्देश्य केवल मन को शान्त करना नहीं है, बल्कि उसे वास्तविक स्वरूप, आत्मा में प्रतिष्ठित करना है।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं — "उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः आत्मैव रिपुरात्मनः॥" (गीता 6.5) — अर्थात मनुष्य को अपने द्वारा ही अपने को उठाना चाहिए, उसे गिराना नहीं चाहिए, क्योंकि वह स्वयं ही अपना मित्र और स्वयं ही अपना शत्रु होता है। ध्यान ही वह साधन है जिससे आत्मा अपने आप को ऊपर उठाती है। ध्यान द्वारा साधक अपने चित्त को विषयों से हटाकर आत्मा की ओर ले जाता है। गीता के ही अध्याय 6 में ध्यानयोग का विस्तृत वर्णन है — "यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥" (गीता 6.26) — जहाँ-जहाँ यह चञ्चल और अस्थिर मन भटकता है, वहाँ-वहाँ से इसे हटाकर आत्मा में ही लगाना चाहिए। यही ध्यान की प्रक्रिया है — मन के विक्षेपों को बार-बार हटाकर आत्मा में स्थित करना। गीता में ही ध्यानस्थ योगी की स्थिति का वर्णन है — "प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥" (गीता 6.14) — जब साधक शांत, निर्भय और संयमी होकर ध्यान करता है, तब वह योगयुक्त होता है और मुझ (परब्रह्म) में स्थित होता है।
ब्रह्मसूत्र में भी आत्मसाक्षात्कार हेतु चित्त की एकाग्रता और अन्तर्मुखता की महत्ता प्रतिपादित की गई है। "तद्वदर्थानाम्॥" (ब्रह्मसूत्र 1.1.4) — शंकराचार्य इस सूत्र की व्याख्या में कहते हैं कि ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए चित्त की एकाग्रता आवश्यक है और यह एकाग्रता ध्यान और उपासना से प्राप्त होती है। ब्रह्मसूत्र 3.4.26 में वर्णित है कि उपासना या ध्यान के द्वारा साधक धीरे-धीरे आत्मा के साक्षात्कार की योग्यता प्राप्त करता है। जब तक मन विषयों की ओर गतिशील है, तब तक वह आत्मा में स्थिर नहीं हो सकता। ध्यान इस गतिशीलता को रोकने की प्रक्रिया है। ध्यान द्वारा चित्त को विषयों से हटाकर ब्रह्म में एकाग्र करना ही उपासना का सार है। उपनिषदों में भी यह बात कही गई है — "प्रवहता यदधः मनः तद्ध्यानेनोर्ध्वं नयेत्।" — जो मन नीचे की ओर बह रहा है, उसे ध्यान द्वारा ऊपर की ओर आत्मा की दिशा में ले जाना चाहिए। यह ऊपर की ओर ले जाना ही मन का नियन्त्रण है।
दृष्टि-दृश्य-विवेक में कहा गया है — "दृश्यम् सर्वम् अनात्मत्वात् दृष्टा तु केवलं ब्रह्म।" — जो कुछ भी देखा जा रहा है वह अनात्म है, केवल दृष्टा ही ब्रह्म है। ध्यान इसी सत्य का अभ्यास है — कि जो कुछ भी मन में विषय रूप में आता है, वह दृश्य है और आत्मा दृष्टा है। ध्यान का अभ्यास इस भेद को स्पष्ट करता है। जब साधक ध्यान में बैठता है, तो वह अपने मन में उठने वाले विचारों को केवल देखता है — न उन्हें पकड़ता है, न उनसे लड़ता है। यह देखने की प्रक्रिया धीरे-धीरे उस “दृष्टा” की स्थिति को उजागर करती है जो साक्षी है, निर्लिप्त है, और स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। यही ध्यान का गूढ़तम उद्देश्य है — “मैं मन नहीं हूँ, विचार नहीं हूँ, अनुभव नहीं हूँ, मैं केवल साक्षी हूँ” — इस साक्षीभाव में स्थित होना ही पूर्ण ध्यान है। इस प्रक्रिया में मन और इन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से वश में आ जाते हैं क्योंकि वे अब विषयों में नहीं, आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाते हैं।
अतः ध्यान कोई यांत्रिक अभ्यास नहीं, अपितु आत्मा की ओर अन्तर्मुख होने की साधना है। यह एक सूक्ष्म यात्रा है, जहाँ साधक विषयों की चकाचौंध को छोड़कर आत्मस्वरूप की ओर उन्मुख होता है। यह यात्रा मन और इन्द्रियों के नियंत्रण के बिना सम्भव नहीं है, और ध्यान ही वह साधन है जिससे यह नियंत्रण सम्भव होता है। ध्यान से मन स्थिर होता है, चित्त निर्मल होता है, इन्द्रियाँ संयमित होती हैं, और अन्ततः आत्मा का प्रकाश प्रकट होता है। उपनिषद, गीता, ब्रह्मसूत्र और शंकराचार्य के ग्रंथ इस बात को बार-बार बताते हैं कि ध्यान ब्रह्मज्ञान का द्वार है। जब साधक ध्यान में पूर्ण रूप से स्थित होता है, तब वह “सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म” का साक्षात्कार करता है और उसे यह बोध होता है कि — "अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ही वह ब्रह्म हूँ। यही मन और इन्द्रियों का पूर्ण नियन्त्रण है — जब वे आत्मा में लीन होकर अपने मूलस्वरूप को प्रकट करते हैं।