"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 10वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यह श्लोक "विवेकचूडामणि" से लिया गया है, जो आदिशंकराचार्य द्वारा रचित एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसका श्लोक संख्या 10 है। इसमें आत्मसाक्षात्कार के पथ पर चलने वाले साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण निर्देश दिया गया है। श्लोक कहता है—
"संन्यस्य सर्वकर्माणि यत्यतां भवबन्धविमुक्तये ।
पण्डितैर्धीरैरात्माभ्यास उपस्थितैः ॥ १० ॥"
इसका भावार्थ है कि धैर्यवान, विद्वान, और आत्माभ्यास में तत्पर पुरुषों को चाहिए कि वे समस्त सांसारिक कर्मों का त्याग करके जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने का प्रयत्न करें।
यहाँ संन्यस्य सर्वकर्माणि का अर्थ है – सभी कर्मों का त्याग करना। यहाँ कर्मों से तात्पर्य उन सांसारिक कर्मों से है जो व्यक्ति को मोह, माया, और अहंकार में बाँधते हैं। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि केवल बाह्य कर्म या अनुष्ठान करने से आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक साधक समर्पित होकर आत्मसाधना में प्रवृत्त न हो।
"भवबन्धविमुक्तये" – इस शब्द का अर्थ है "भव-सागर से मुक्त होने के लिए", अर्थात् पुनर्जन्म के चक्र से छूटने के लिए। वेदांत के अनुसार, यह संसार अनित्य है, इसमें जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है। जब तक व्यक्ति अपने को देह मानता है, तब तक वह इस चक्र में फंसा रहता है। आत्मसाक्षात्कार ही इसका एकमात्र समाधान है, जिससे इस बंधन से छूट पाई जा सकती है।
शंकराचार्य ने यहाँ पण्डितैः और धीरैः शब्दों का उपयोग किया है। पण्डित वह है जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया है, और धीर वह है जो स्थिर बुद्धि वाला है, जो विषयों में लिप्त नहीं होता। केवल विद्या होने से कोई लाभ नहीं जब तक व्यक्ति में धैर्य, वैराग्य और आत्मचिंतन की प्रवृत्ति न हो।
"आत्माभ्यास उपस्थितैः" का आशय है – जो आत्मसाक्षात्कार की साधना में तत्पर हैं, उन परिपक्व साधकों को चाहिए कि वे जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष को बनाएं और निरन्तर आत्मचिंतन, आत्मविचार तथा आत्मस्वरूप की अनुभूति में लगे रहें। केवल कर्म करने से आत्मा का अनुभव नहीं होता, जब तक मन पूरी तरह एकाग्र न हो और माया की उपाधियों से ऊपर न उठे।
इस श्लोक का सार यही है कि जो मनुष्य आत्मा की पहचान करना चाहता है, उसे संसार के मोह और कर्मों से अपने को अलग करके पूर्ण निष्ठा से आत्मबोध की साधना करनी चाहिए। इसके लिए वह बाह्य और आंतरिक संन्यास को अपनाए – बाह्य रूप में सांसारिक भोगों से दूर हो और आंतरिक रूप में कामनाओं, वासनाओं और अहंकार का त्याग करे।
इस प्रकार यह श्लोक एक साधक के लिए अत्यंत प्रेरणास्पद मार्गदर्शन है। यह केवल एक वैराग्य का उपदेश नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार का सूत्र है। जो इस पथ पर चलकर संन्यासपूर्वक आत्माभ्यास करता है, वही भवबन्धन से मुक्त होकर ब्रह्मस्वरूप में स्थित हो सकता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!