"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 9वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ। योगारूढत्वमासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया ॥ ९ ॥
अर्थ:-और निरन्तर सत्य वस्तु आत्मा के दर्शन में स्थित रहता हुआ योगारूढ होकर संसार-समुद्र में डूबे हुए अपने आत्मा का आप ही उद्धार करे।
यह श्लोक 'विवेकचूडामणि' के 9वें श्लोक का अनुवाद और व्याख्या है। इसका मूल उद्देश्य आत्मोन्नति की शिक्षा देना है। इसमें आदि शंकराचार्य साधकों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मनुष्य को स्वयं अपने प्रयासों द्वारा अपने आत्मा का उद्धार करना चाहिए, क्योंकि स्वयं ही वह अपना मित्र है और स्वयं ही वह अपना शत्रु भी हो सकता है। श्लोक का भावार्थ है कि जब व्यक्ति संसार-रूपी समुद्र में मोह, अज्ञान और वासनाओं में डूबा हुआ होता है, तब उसे स्वयं ही अपने उद्धार के लिए प्रयास करना होता है। कोई दूसरा उसे बाहर नहीं निकाल सकता। यह आत्मदर्शन और आत्मचिंतन का मार्ग है, जो केवल स्वयं के प्रयत्न से ही संभव होता है।
यहाँ "उद्धरेत् आत्मना आत्मानं" का तात्पर्य है कि व्यक्ति को अपने शुद्ध बुद्धि और विवेक के माध्यम से अपने मन और आत्मा का उत्थान करना चाहिए। “मग्नं संसारवारिधौ” यह इंगित करता है कि जीव अज्ञान, मोह, राग-द्वेष, वासनाओं और कर्मों की श्रृंखला में डूबा हुआ है। यह संसार एक विशाल समुद्र की तरह है, जिसमें अनेक प्रकार की लहरें—जैसे सुख-दुख, राग-द्वेष, आशा-निराशा आदि—मानव को हर पल बहा ले जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा की स्थिति एक डूबते हुए नाविक के समान होती है, जिसे बचाने वाला यदि कोई है, तो वह स्वयं का विवेक, साधना और आत्मानुभूति ही है।
"योगारूढत्वम् आसाद्य" का अर्थ है कि जब साधक योग की आरूढ़ स्थिति को प्राप्त कर लेता है, अर्थात उसका मन शांत, नियंत्रित और अंतर्मुख हो जाता है, तब वह सत्य के साक्षात्कार के योग्य बनता है। योगारूढ़ व्यक्ति वह है जो इन्द्रियों पर संयम रखता है, रजोगुण और तमोगुण को शांत करता है, और सत्वगुण में स्थित होकर आत्मस्वरूप का चिंतन करता है। जब यह स्थिति प्राप्त हो जाती है, तब वह साधक “सम्यग्दर्शननिष्ठया” अर्थात सम्यक् आत्मदृष्टि में स्थित होकर जीवन व्यतीत करता है। यह सम्यग्दर्शन वही स्थिति है, जहाँ आत्मा और ब्रह्म का अभेद भाव दृढ़ हो जाता है।
इस श्लोक का गूढ़ संकेत यह है कि आत्मा की उन्नति किसी बाहरी साधन से नहीं हो सकती। जितना प्रयास कोई और हमारे लिए करे, वह क्षणिक ही होगा। स्थायी परिवर्तन और आत्मकल्याण तभी संभव है जब साधक अपने भीतर जागरण करे, अपने दोषों को जाने, वासनाओं को त्यागे, और सतत आत्मचिंतन, साधना, और वैराग्य से अपने भीतर स्थित परमात्मा की ओर यात्रा करे। शंकराचार्य जी यही संकेत करते हैं कि आत्मा का उद्धार आत्मा के ही द्वारा संभव है। जब तक साधक स्वयं श्रम नहीं करता, तप नहीं करता, और आत्मा की ओर उन्मुख नहीं होता, तब तक कोई भी गुरु, शास्त्र या देवता उसका वास्तविक कल्याण नहीं कर सकते।
अतः यह श्लोक केवल आध्यात्मिक अनुशासन की बात नहीं करता, बल्कि यह मानव जीवन का मूल सिद्धांत प्रस्तुत करता है — स्वयंसहायता, आत्मनिष्ठा और अंतर्मुख साधना। यही सच्चे आत्मोद्धार का मार्ग है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!