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बुधवार, 4 जून 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 11वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 11वां श्लोक"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ


चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये । वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किञ्चित् कर्मकोटिभिः ॥ ११ ॥

अर्थ:-कर्म चित्त की शुद्धि के लिये ही है, वस्तूपलब्धि (तत्त्वदृष्टि) के लिये नहीं। वस्तु-सिद्धि तो विचार से ही होती है, करोड़ों कर्मों से कुछ भी नहीं हो सकता।

यह श्लोक विवेकचूड़ामणि (शंकराचार्य कृत) का 11वाँ श्लोक है और यह अद्वैत वेदांत के मूलभूत सिद्धांत को अत्यंत स्पष्टता से प्रस्तुत करता है। श्लोक का भाव यह है कि कर्म (क्रिया या धार्मिक कृत्य) का उद्देश्य चित्तशुद्धि यानी मन की पवित्रता है, न कि परमात्मा या ब्रह्म की साक्षात उपलब्धि। तत्त्वज्ञान या वस्तु-सिद्धि — अर्थात आत्मा की ब्रह्मरूपता की अनुभूति — केवल विचार (विवेकपूर्ण आत्मचिंतन) से ही संभव है, करोड़ों कर्म करने पर भी वह साक्षातकार नहीं हो सकता।

इसका पहला भाग है — "चित्तस्य शुद्धये कर्म" — अर्थात् समस्त कर्मों (जैसे यज्ञ, दान, तप, व्रत, पूजा आदि) का मुख्य उद्देश्य है चित्त को शुद्ध करना। चित्त जब तक विकारों, वासनाओं, राग-द्वेष, अहंकार और मोह से ग्रस्त होता है, तब तक वह आत्मा के स्वरूप को नहीं पहचान सकता। जैसे गंदे दर्पण में चेहरा नहीं दिखता, वैसे ही अशुद्ध चित्त में आत्मबोध नहीं हो सकता। अतः कर्म का महत्व इस कारण है कि वह चित्त की शुद्धि में सहायक होता है, आत्मबोध में नहीं।

दूसरा भाग है — "न तु वस्तूपलब्धये" — अर्थात् कर्मों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती। कर्म जगत में परिवर्तन लाने वाले हैं, वे सदा परिणामशील और सीमित होते हैं। ब्रह्म, जो कि निष्क्रिय, अकलुष, अपरिणामी और सर्वथा पूर्ण है, उसकी प्राप्ति सीमित और परिणामशील कर्मों से नहीं हो सकती। इसलिए शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि तत्त्वबोध का साधन कर्म नहीं, बल्कि ज्ञान है।

तीसरा भाग — "वस्तुसिद्धिर्विचारेण" — यह भाग अत्यंत महत्वपूर्ण है। वस्तु (यहाँ ‘वस्तु’ से तात्पर्य है ब्रह्म, परम सत्य, आत्मा का स्वरूप) की सिद्धि केवल विचार से होती है। ‘विचार’ का अर्थ है आत्म-चिंतन, श्रद्धा और तर्क के साथ शास्त्रों और गुरु के उपदेशों का मनन और निदिध्यासन करना। जब साधक यह गहन विचार करता है कि “मैं कौन हूँ?”, “यह जगत क्या है?”, “ब्रह्म क्या है?”, तब वह धीरे-धीरे शरीर, मन और बुद्धि से अलग होकर अपने चैतन्य स्वरूप को पहचानने लगता है।

अंतिम भाग — "न किञ्चित् कर्मकोटिभिः" — शंकराचार्य यहाँ अत्यंत दृढ़ता से यह निष्कर्ष देते हैं कि करोड़ों कर्मों से भी आत्मा का साक्षात्कार संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि कर्म सदा द्वैत (कर्त्ता, कर्तव्य और फल) पर आधारित होता है, जबकि ब्रह्म अद्वैत है — उसमें कोई द्वैत नहीं। इसीलिए, केवल कर्म करते जाना, चाहे वह लाखों यज्ञ हो या वर्षों तक तपस्या — यदि उसमें ज्ञान का संयोग न हो, तो वह केवल पुन्य और चित्तशुद्धि तक ही सीमित रहता है।

निष्कर्षतः, यह श्लोक अद्वैत वेदांत की साधना-पद्धति को स्पष्ट करता है। प्रारंभ में कर्म आवश्यक है — चित्तशुद्धि हेतु। किन्तु अंतिम लक्ष्य, आत्मसाक्षात्कार या ब्रह्मज्ञान, केवल ‘विचार’ अर्थात श्रवण, मनन और निदिध्यासन से ही संभव है। यही वह मार्ग है जिससे साधक अज्ञान को काटकर अपने सत्यस्वरूप की अनुभूति करता है — जो सदा मुक्त, पूर्ण और ब्रह्मस्वरूप है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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