"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 12वां श्लोक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
सम्यग्विचारतः सिद्धा रज्जुतत्त्वावधारणा । भ्रान्त्योदितमहासर्पभयदुःखविनाशिनी ॥१२॥
अर्थ:-भलीभाँति विचार से सिद्ध हुआ रज्जु तत्त्व का निश्चय भ्रम से उत्पन्न हुए महान् सर्पभयरूपी दुःख को नष्ट करने वाला होता है।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की अत्यंत प्रसिद्ध दृष्टांत प्रणाली — रज्जु-सर्प दृष्टांत — का गूढ़ विवेचन करता है। इसमें यह समझाया गया है कि जैसे अंधेरे में एक रस्सी को सर्प समझ लेने से मनुष्य भयभीत हो जाता है, वैसे ही अज्ञानवश आत्मा को शरीर, मन, बुद्धि आदि से अभिन्न मान लेने पर संसार का भय और दुख उत्पन्न होता है। परंतु जब उस रस्सी के स्वरूप का सम्यक् विचार, यानी प्रकाश में विशुद्ध ज्ञान होता है, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि वहां सर्प नहीं, केवल रस्सी थी। उसी प्रकार जब आत्मा के तत्त्व का सम्यक् विचार और ज्ञान होता है, तब संसार रूपी दुख का नाश हो जाता है।
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि केवल अनुभव या प्रत्यक्ष ज्ञान से ही भ्रम दूर नहीं होता, बल्कि “सम्यग्विचार” — यथार्थ विचार या विवेकपूर्ण तत्त्वचिंतन से ही सत्य का बोध संभव होता है। जब तक मनुष्य के चित्त में भ्रम बना रहता है, वह सच्चाई को देख नहीं सकता और उसी भ्रांति से उत्पन्न भय उसे दुःख देता है। जैसे रस्सी को सर्प मान लेने पर शरीर कांपने लगता है, ह्रदय भय से भर जाता है, वैसे ही आत्मा को न पहचान पाने की भ्रांति ही जन्म-मरण, भय, मोह और दुःख का कारण है।
यहाँ "रज्जु तत्त्व" से तात्पर्य है — यथार्थ स्वरूप का ज्ञान। अज्ञान रूपी अंधकार में आत्मा की सही पहचान नहीं हो पाती और माया के प्रभाव में जीव भ्रमित होकर संसार को सत्य मान बैठता है। परंतु जब गुरु के उपदेश, शास्त्र के अध्ययन और ध्यान के माध्यम से आत्मा का साक्षात्कार होता है, तब यह अनुभव होता है कि "अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ही ब्रह्म हूँ, यह समस्त विश्व मेरी ही चेतना में प्रकट है। उस समय वह समस्त भय, पीड़ा और मोह से मुक्त हो जाता है।
इस श्लोक का गहरा संकेत यह है कि दुःख का मूल कारण वस्तु का दोष नहीं है, बल्कि हमारी दृष्टि का दोष है। यदि हम संसार में दुख देख रहे हैं, तो यह हमारे भीतर के अज्ञान की छाया है। ज्ञान प्राप्त होते ही वही संसार आत्मस्वरूप में परिणत हो जाता है। ज्ञान, प्रकाश की भांति है — जो होने पर अंधकार अपने आप मिट जाता है। इसी प्रकार आत्मज्ञान होने पर यह मिथ्या जगत् और उससे उपजे सभी दुःख, भय, मोह समाप्त हो जाते हैं।
इस दृष्टांत में यह भी प्रतिपादित है कि मुक्ति के लिए किसी कर्म या विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं है, बल्कि केवल सम्यक् विचार यानी "तत्त्वविचार" की आवश्यकता है। क्योंकि कर्मों से तो केवल चित्तशुद्धि होती है, परन्तु वस्तुनिष्ठ ज्ञान तो विवेकपूर्ण विचार से ही संभव है। इसलिए उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों, भगवद्गीता आदि सभी ग्रंथ आत्मविचार को ही प्रमुख साधन बताते हैं।
अंततः यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि अज्ञान रूपी अंधकार में जब तक हम भ्रमित रहेंगे, संसार एक भयावह सर्प के समान प्रतीत होगा; परंतु जब सम्यक् ज्ञान रूपी प्रकाश का संयोग होता है, तब हम जान जाते हैं कि वहां कोई भय नहीं, कोई सर्प नहीं — केवल रज्जु है। और यही दृष्टि आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत सत्य को प्रकाशित करती है, जिससे सम्पूर्ण दुखों का अंत हो जाता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!