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शुक्रवार, 6 जून 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 13वां श्लोक"



"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 13वां श्लोक"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ


अर्थस्य निश्चयो दृष्टो विचारेण हितोक्तितः ।

न स्नानेन न दानेन प्राणायामशतेन वा ॥ १३॥

अर्थ:- कल्याणप्रद उक्तियों द्वारा विचार करने से ही वस्तु का निश्चय होता देखा जाता है; स्नान, दान अथवा सैकड़ों प्राणायामों से नहीं।

इस श्लोक में आत्मसाक्षात्कार की दिशा में साधक की साधना का मार्ग स्पष्ट किया गया है। यहाँ यह बताया गया है कि तत्त्व का निश्चय अर्थात आत्मा या ब्रह्म की यथार्थ अनुभूति केवल शास्त्रीय उपदेशों और गुरु की कल्याणप्रद वाणियों के गम्भीर विचार से ही सम्भव है। यह निश्चय शुद्ध विचार प्रक्रिया से उपजता है, न कि बाह्य आडम्बरपूर्ण धार्मिक आचरणों से। श्लोक में यह भी स्पष्ट किया गया है कि केवल स्नान, दान अथवा सैकड़ों बार किए गए प्राणायाम जैसे कर्मकांड आत्मसाक्षात्कार में सहायक नहीं हैं जब तक उनके पीछे विवेक और विचारशीलता नहीं है।

‘विचारेण’ शब्द यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका तात्पर्य है — निरन्तर, सूक्ष्म और श्रद्धापूर्वक चिंतन। जब मनुष्य वेदांत के उपदेशों और सद्गुरु के वचनों का गहराई से मनन करता है, तब ही वह जान पाता है कि वास्तविक अर्थ क्या है, और यह आत्मा-ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। इसके बिना, चाहे कोई कितने भी बाह्य कर्म कर ले, वह उस सत्य तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि सत्य का साक्षात्कार भीतर से होता है, बाहरी कर्मों से नहीं।

‘हितोक्तितः’ — अर्थात जिन वचनों में हित छिपा हो, कल्याण समाहित हो, ऐसे उपदेश, चाहे वे शास्त्रों के हों या गुरु के, वे विचार का विषय बनें, तो वे आत्मबोध का द्वार खोलते हैं। ऐसा विचार न केवल ज्ञान को जन्म देता है, बल्कि अज्ञान के अंधकार को मिटाकर मनुष्य को उसकी असली स्थिति का बोध कराता है। इसलिए वेदांत बार-बार श्रद्धा, मनन और निदिध्यासन की बात करता है — केवल अनुष्ठान करने की नहीं।

श्लोक यह भी कहता है कि स्नान, दान या प्राणायाम — जो कि सामान्यतः धार्मिक पुण्यकर्म माने जाते हैं — वे आत्मज्ञान के लिए पर्याप्त नहीं हैं। ये सभी क्रियाएँ शरीर और मन की शुद्धि के लिये सहायक हो सकती हैं, परन्तु वे अन्तिम सत्य का बोध नहीं करातीं। केवल क्रियाओं की पुनरावृत्ति करने से दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता जब तक कि उसके पीछे गहन विवेक और सत्य की खोज न हो।

प्राणायाम, दान और स्नान जैसी क्रियाओं का महत्त्व तभी है जब वे आत्मचिंतन और शुद्ध चित्त की दिशा में प्रेरित करें। किन्तु यदि ये क्रियाएँ मात्र दिखावे या यांत्रिक रूप से की जा रही हों, तो वे अन्तःकरण को निर्मल नहीं करतीं, और न ही आत्मसाक्षात्कार में सहायक बनती हैं। आत्मा का अनुभव सूक्ष्म है, जिसे केवल निर्मल और विचारशील चित्त ही ग्रहण कर सकता है।

अतः यह श्लोक साधक को यह शिक्षा देता है कि आत्मबोध के मार्ग में केवल बाह्य धार्मिक क्रियाओं पर आश्रित न रहकर, वेदांत के उपदेशों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिए। यही मार्ग वास्तविक आत्मिक कल्याण और मुक्ति की ओर ले जाता है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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